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सकारात्मक अहिंसा
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जायेगा । इस प्रकार सेवा आदि सद्-प्रवृत्तियों में विकृति श्रा जायेगी, वे दूषित हो जायेगीं । श्रतः निवृत्ति-परक श्रहिंसा तो आवश्यक है ही, परन्तु उसे ही सम्पूर्ण अहिंसा मान लेना भ्रम है । श्रतः साधक के लिए निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों की समान आवश्यकता है । कहा भी है
सुहादो विरिगवित्ती, सुहे पवित्तीय जाणं चारितं ॥
श्राचार्य नेमिचन्द्र
अर्थात् हिंसादि अशुभ कार्यों से निवृत्ति व दया श्रादि शुभ कार्यों में प्रवृत्ति ही चारित्र है ।
वस्तुतः निष्क्रियता रूप अकर्मण्यता का नाम श्रहिंसा नहीं है । अहिंसा में विश्वबन्धुत्व, भ्रातृत्वभाव, मातृत्वभाव, वात्सल्यभाव, मैत्रीभाव, करुणाभाव, अनुकंपाभाव, सर्वहितकारी भाव, सेवाभाव, श्रादि सन्निहित हैं | अहिंसा का क्षेत्र "जीओ और जीने दो” तक ही सीमित नहीं है अपितु दूसरों के प्रति करुणा कर उन्हें सहयोग देना भी अहिंसा है । इस विधेयात्मक अहिंसा के अभाव में निषेधात्मक अहिंसा का विशेष अर्थ नहीं रह जाता है । किसी का बुरा न करना अच्छी बात है, परन्तु इससे अधिक महत्त्व की बात है किसी का भला करना । किसी का बुरा न करना निषेधात्मक अहिंसा है और उसका भला करना विधेयात्मक अहिंसा है । यह सभी का अनुभव है कि जो भला करता है वही भला व्यक्ति है । भला करने की शक्ति व सामर्थ्य होने पर भी जो भला नहीं करता है तथा किसी जीव को दु:ख पाते, तड़फते, बिलबिलाते देखता रहता है वह निष्ठुर व क्रूर है, अहिंसक नहीं ।
निषेधात्मक हिंसा के रूप हैं- किसी को न सताना, पीड़ा न पहुंचाना, न मारना, हृदय को आघात न पहुंचाना, किसी की हानि न करना, कटु वचन न बोलना, दास न बनाना, अधिक वजन न डालना, दुर्व्यवहार न करना, नकली दवाइयां न बनाना व न बेचना, खाद्य पदार्थों में खाद्य पदार्थ की मिलावट न करना, धोखा न देना,
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