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सकारात्मक अहिंसा
उदाहरणार्थ सत्य महाव्रत को ही लें। सत्य का नकारात्मक रूप हैझूठ न बोलना और सकारात्मक रूप है सत्य बोलना। यदि हम सत्य के सकारात्मक रूप 'सत्य बोलने' का निषेध करदें तो सत्य का नकारात्मक रूप ही शेष रह जायेगा 'न बोलना', कारण कि बोलना दो ही प्रकार का होता है-झूठ बोलना और सत्य बोलना। जब दोनों प्रकार के बोलने का निषेध हो जाता है तो न बोलना शेष रह जाता है । यदि अब हम न बोलने को ही सत्य मानें तो जो जो जीव नहीं बोलते या इस समय नहीं बोल रहे हैं वे सब के सब सत्य गुण के धारी कहलायेंगे जैसे पेड़, पौधे, गूगे व्यक्ति आदि । परन्तु ऐसा मानना भयंकर भूल है। 'कोई व्यक्ति नहीं बोल रहा है इसलिए सत्य गुण का पालन या अनुशीलन कर रहा है,ऐसा ज्ञानी की तो क्या कहें अज्ञानी से अज्ञानी भी नहीं मानता और उसका ऐसा न मानना उपयुक्त व उचित ही है। अतः 'सत्य' गुण में असत्य न बोलने के साथ सत्य बोलना भी जुड़ा हुआ है। उसी प्रकार अहिंसा गुरण के भी ये दो रूप हैं । अहिंसा का नकारात्मक रूप है हिंसा न करना, किसी को न मारना, कष्ट न देना और सकारात्मक रूप है दया करना, रक्षा करना, कष्ट दूर करना आदि । यदि अहिंसा के सकारात्मक रूप का निषेध कर केवल निषेधात्मक रूप को ही माना जाय तो अहिंसा मात्र अभावरूप हो जायेगी। अभाव का अस्तित्व ही नहीं होता। जिसका अस्तित्व ही नहीं है उसे गुण कैसे कहा जाय?
अभिप्राय यह है कि गुण सद्भावात्मक होता है अभावात्मक नहीं । अत: गुण का प्रकटीकरण उसके विधेयात्मक रूप से ही संभव है । अभावात्मक रूप उस गुण के घातक एवं उसके विपरीत दोष का ही होता है, गुण का नहीं। अनुकंपा या करुणा गुण का प्रकटीकरण दया, दान आदि क्रियात्मक व विधेयात्मक रूप में होता है, किसी जीव को न मारने में या दुख न देने मात्र में नहीं । यदि किसी जीव को न मारने को ही दया या अहिंसा माना जाय तो इस प्रकरण को पढ़ते समय अर्थात् इस क्षण पाठक पशु, पक्षी, मनुष्य, वनस्पति प्रादि अनंत जीवों को नहीं मार रहे हैं तथा भयंकर से भयंकर हिंसक प्राणी भी हिंसा करते समय गिनती के कुछ जीवों
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