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अहिंसा का सकारात्मक रूप
[ 3 प्रवृत्तिपरक होने से दया, दान आदि का अहिंसारूप धर्म में स्थान नहीं हो सकता तथा उनका मानना है कि ये दया, दान आदि सद्प्रवृत्तियां सोने की बेड़ी व शूली के समान हैं जबकि हिंसा, झूठ आदि दुष्प्रवृत्तियां लोहे की बेड़ी व शूली के समान हैं । उनकी मान्यतानुसार सप्रवृत्तियों एवं दुष्प्रवृत्तियों में इतना ही अन्तर है। इस विचारधारा का जैन-धर्मानुयायियों में कुछ दशाब्दी से संक्रामक रोग के रूप में बड़ी तेजी से प्रचार-प्रसार हुआ है व हो रहा है। इसका प्रभाव न्यूनाधिक रूप से जैन-धर्म के प्रायः सभी संप्रदायों पर पड़ा है इसके परिणामस्वरूप जीवन में से दया, दान, मैत्री, करुणा, अनुकंपा सेवा, वात्सल्यभाव, उदारता प्रादि सगुद्रणों की उपेक्षा एवं लोप होने लगा है तथा निर्दयता, हृदयहीनता, निष्ठुरता, कठोरता, क्रूरता स्वार्थपरता, संकीर्णता आदि दुर्गुणों का पोषण होने लगा है। जिससे जीवन मानवता व कर्तव्यपरायणता से शून्य होता जा रहा है और ऊपर से तुर्रा यह है कि इसे उच्चस्तरीय अध्यात्म का रूप दिया जा रहा है। __ उपर्युक्त बातों व इन्हीं से संबन्धित अन्य बातों को दृष्टिगत करके प्रस्तुत पुस्तक में जैनागम, कर्मसिद्धान्त, प्राचीन टीकाओं, मनोविज्ञान, जीवन-व्यवहार आदि के परिप्रेक्ष्य में यह विवेचन किया जाएगा कि दया, दान आदि अहिंसा के जितने भी सकारात्मकरूप सद्गुरण व सद्प्रवत्तियां हैं वे सब की सब रवभाव हैं अतः इनसे कर्मों का बंध नहीं होता अपितु कर्मों का क्षय अवश्य होता है । कर्मक्षय के हेतु होने से ये सब धर्म हैं। सद्प्रवृत्तियां, संयम, त्याग, तप आदि जितने भी धर्म हैं उन सबसे पुण्य का उपार्जन या सृजन होता है। पुण्य से आत्मा के किसी भी गुण का लेशमात्र भी घात नहीं होता है, हानि नहीं होती है अपितु विशुद्धि होती है तथा पाप का क्षय होता है । अतः पुण्य किसी भी रूप में त्याज्य नहीं है। वस्तुतः पुण्य और धर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं व पर्यायवाची हैं प्रागे इन्हीं सब बातों पर विशेष प्रकाश डाला जा रहा है । अहिंसा के दो रूप गुण के दो रूप होते हैं-(1) नकारात्मक और (2) सकारात्मक
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