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अहिंसा का अर्थ
'अहिंसा' शब्द हिंसा शब्द के पूर्व 'अ' (न हिंसा इति श्रहिंसा ) लगने से बना है । "अ" ( नञ ) का प्रयोग अभाव, विरोध ( विलोमविपरीत) अल्प आदि अनेक अर्थों में होता है । जैसे 'धर्म' शब्द को ही लें । अधर्म का अर्थ धर्म का प्रभाव तो है ही, साथ ही धर्म के विपरीत कार्य हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप करना भी अधर्म ही है । यदि कोई 'धर्म' का अर्थ 'धर्म न करने' जैसा रूप ही ले और हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप प्रवृत्तियों को न ले तो 'अधर्म' शब्द का ऐसा अर्थ करना अधूरा, एकांगी एवं भ्रान्तियुक्त होगा । ऐसे ही उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन 20 गाथा 37 के उत्तरार्द्ध में कहा है
'अप्पा मित्तममित्त' च दुप्पटठय-सुप्पट्ठिनो'
इस गाथा में सुप्रवृत्ति को आत्मा का मित्र और दुष्प्रवृत्ति को अमित्र कहा है । यहां श्रमित्र शब्द का अर्थ मित्र न होने तक ही सीमित नहीं है अपितु मित्र के विपरीत अर्थ वाचक 'शत्रु होने के अर्थ में लिया गया है । इसी प्रकार श्रहिंसा शब्द का अर्थ हिंसा का प्रभाव तो है ही साथ ही हिंसा के विपरीत कार्य दया, दान, करुणा अनुकंपा, वात्सल्य, भ्रातृत्व, मैत्री, सेवा, परोपकार आदि सद्प्रवृत्तियाँ या सद्गुण भी है । यदि कोई 'अहिंसा' का अर्थ केवल हिंसा न करने जैसा रूप ही ले और दया, दान आदि सद्प्रवृतियों को न ले तो अहिंसा का ऐसा अर्थ अधरा, एकांगी (विकलांग) व भ्रान्तियुक्त होगा । परन्तु वर्तमान में जैन धर्म के कुछ संप्रदायों ने 'अहिंसा' शब्द का अर्थ न केवल हिंसा न करने रूप निषेधात्मक अर्थ तक ही सीमित कर दिया है प्रत्युत वे दया, दान, सेवा, परोपकार आदि सद्प्रवृतियों व सद्गुणों रूप अहिंसा के सकारात्मक अर्थ के द्योतक कार्यों का निषेध व विरोध भी करते हैं और इसकी पुष्टि में कारण यह दिया जाता है कि सकारात्मक अहिंसा के दया, दान, सेवा, परोपकार आदि सब रूप प्रवृत्तिपरक हैं और प्रवृत्ति में क्रिया होती है, क्रिया से कर्मबंध होता है । अतः दया, दान आदि से कर्मबंध होता है । कर्मबंध संसार के परिभ्रमरण रूप दुःख का कारण है, अतः
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सकारात्मक अहिंसा
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