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अहिंसा का सकारात्मक रूप
मानवजीवन की विशेषता
संसार को देखने से ऐसा विदित होता है कि जिस प्रकार पशुपक्षी, कीट-पतंग, वनस्पति आदि प्राणी जन्म लेते हैं, खाते-पीते हैं, भोग-भोगते हैं और अन्त में मर जाते हैं, इसी प्रकार मनुष्य भी जन्म लेता, खाता-पीता, भोग भोगता है और अंत में मर जाता है। फिर अन्य योनियों के जीवों से मनुष्य में क्या अंतर हुअा ? क्या विशेषता हुई ? इस जिज्ञासा पर गहराई से चिन्तन करने से यह तथ्य सामने आता है कि पशु का जीवन विषय-सुख, इन्द्रिय सुख के भोग भोगने तक ही सीमित होता है, वह इससे ऊपर नहीं उठ सकता है ; वह भोगयोनि है। जबकि मनुष्य अपनी सुख-सामग्री का उपयोग दूसरों के दु:ख दूर करने में, उन्हें प्रसन्न बनाने में कर सकता है, इस प्रकार विषय (भोग) सुख से ऊपर उठकर मनुष्य एक विलक्षण प्रकार की प्रसन्नता की, परमानन्द की उपलब्धि कर सकता है, जो पशु के लिए सहज संभव नहीं है। दूसरों के दुःख से करुणित हो उनके दुःख को दूर करने का भाव व प्रयास ही मानवता है । मानवता का ही दूसरा नाम दया या अहिंसा है । __ मानवता से विशेष प्रकार की प्रसन्नता मिलती है। यह प्रसन्नता विषय-भोग या इन्द्रिय-सुख की अपेक्षा विलक्षण है। कारण कि इन्द्रियों के विषय-भोग से मिलने वाले सुख के साथ नश्वरता अनित्यता, क्षीणता, नीरसता, पराधीनता, शक्तिहीनता, जड़ता आदि असंख्य दोष व दु:ख सदा लगे रहते हैं इसका विशेष विवेचन लेखक की "दुःख मुक्ति : सुख प्राप्ति" पुस्तक के प्रकरण 2, 3, 4 में किया गया है। इसके विपरीत मानवता से, करुणाभाव से, दूसरों के दुःख दूर करने से तथा दयाभाव से मिली हुई प्रसन्नता का सुख सदा सरस बना रहता है, क्षीण नहीं होता, अक्षय होता है। दूसरों को दुःख से बचाने व उनके दुःख दूर करने के उपाय या प्रयास को अहिंसा कहा जाता है। आगे इसी "अहिंसा" के संबंध में विचार किया जा रहा है।
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