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भूमिका
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एक पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में हिंसा के अल्प - बहुत्व का निर्णय करना हो तो जैनाचार्यों की दृष्टि में हजारों एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा की अपेक्षा एक पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा अधिक भयंकर मानी गयी है ।
स्वयं महावीर के युग में भी यह प्रश्न उपस्थित हुआ था कि अनेक एकेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा एक पंचेन्द्रिय जीव की हिंसा में कौन-सी हिंसा अल्प है ? उनके युग में हस्ति तापसों का एक वर्ग था जो यह कहता था कि हम तो वर्ष में केवल एक हाथी को मारते हैं और उसके माँस से पूरे वर्ष अपनी आजीविका की पूर्ति करते हैं । इस प्रकार हम सबसे कम हिंसा करते हैं (सूत्रकृतांग 2 / 6 / 53-54 ) । इस विचारधारा का स्वयं महावीर ने खंडन किया और बताया कि यह अवधारणा भ्रांत है । भगवतीसूत्र में इस प्रश्न पर और भी अधिक गम्भीरता से विचार हुआ है । उसमें बताया गया है कि अनेक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा और उनमें भी एक ऋषि की हिंसा अधिक निकृष्ट होती है ( भगवतीसूत्र 9 / 34 / 106-107 ) । अत: जैन दृष्टिकोण से हिंसा का अल्पबहुत्व प्राणियों की संख्या पर नहीं, उनके ऐन्द्रियक एवं आध्यात्मिक विकास पर निर्भर करता है । जब चुनाव दो हिंसाओं के बीच करना हो तो हमें चुनाव अल्प हिंसा का ही करना होगा और इसमें हिंसा का अल्प - बहुत्व प्राणियों की संख्या पर नहीं उनके ऐन्द्रियक विकास पर ही निर्भर करेगा ।
यदि हम एक ओर यह मानें कि अपने जीवन-रक्षण हेतु हम एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा कर सकते हैं और उसका हमें अधिकार है और दूसरी ओर यह कहें कि चूँकि दूसरे प्राणियों के रक्षण, पोषण, सेवा आदि की प्रवृत्तियों में एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिंसा जुड़ी हुई है अतः त्याज्य है, तो यह आत्म-प्रवंचना ही होगी । गृहस्थ जीवन तो क्या मुनि-जीवन में भी कोई व्यक्ति एकेन्द्रिय जीवों के प्रति पूर्ण अहिंसक नहीं हो पाता है । अतः एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा से बचने के नाम पर अहिंसा के सकारात्मक पक्ष की अवहेलना न तो उचित है और न नैतिक ही ।
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