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सकारात्मक हिंसा
होने वाली हिंसा बंधक या अनुचित नहीं होती । उदाहरण के रूप में जैन मुनि आवश्यक क्रिया करते समय, प्रतिलेखन करते समय या पद यात्रा करते समय जो शारीरिक क्रियायें करता है उसमें हिंसा तो होती ही है । चाहे कितनी ही सावधानी क्यों न रखी जाय ये सभी क्रियायें हिंसा से रहित नहीं हैं फिर भी इन्हें मुक्ति का ही साधन माना जाता है, बन्धन का कारण नहीं । व्यावहारिक क्षेत्र में न्यायाधीश समाज-व्यवस्था और अपने देश के कानून के अन्तर्गत कर्तव्य बुद्धि से अपराधी को दण्ड देता है, यहां तक कि मृत्युदण्ड भी देता है | क्या हम न्यायाधीश को मनुष्य की हत्या का दोषी मानेंगे ? वह तो अपने नियम और कर्त्तव्य से बंधा होने के कारण ही ऐसा करता है । अतः उसके प्रदेश से हिंसा की घटना होने पर भी वह हिंसक नहीं माना जाता । अतः मनोभूमिका की दृष्टि से जब तक अन्तर में कषाय भाव या द्वेष-बुद्धि न हो तब तक बाह्य रूप में घटित हिंसा की क्रिया न तो बन्धक होती है और न अनुचित । आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से कहा था कि बाहर में हिंसा की घटना घटित हो या न हो, प्रमत्त या कषाययुक्त व्यक्ति नियमतः हिंसक ही होता है । इसके विपरीत बाह्य रूप से हिंसा की घटना घटित होने पर भी कषायरहित प्रमादी मुनि नियमतः प्रहिंसक ही होता है । इसलिए यह मानना कि सकारात्मक अहिंसा में बाह्य रूप से हिंसा की घटना होती है, अतः वह अनुचित है -- एक भ्रान्त दृष्टिकोण है । हिंसा की घटना घटित होने पर भी यदि कर्ता ने वह कर्म मात्र कर्त्तव्य बुद्धि से किया है, उसके मन में दूसरे को पीड़ा पहुँचाने का भाव नहीं है, तो वह हिंसक नहीं माना जा सकता । जो कर्म विवेकपूर्वक और निष्काम भाव से किये जाते हैं उनमें हिंसा अल्प या अत्यल्प होती है । भावना या रागात्मकता की स्थिति में भी जो प्रशस्त राग-भाव है उसमें हिंसा अल्प मानी गई है ।
हिंसा-अहिंसा के अल्प - बहुत्व के विचार के सन्दर्भ में दूसरा दृष्टिकोण यह है कि यदि दो हिंसाओं के विकल्प में एक का चुनाव करना हो तो हमें अल्प हिंसा को चुनना होगा और उस अल्प हिंसा का आधार जैन आचार्यों ने प्राणियों की संख्या न मान कर उनके ऐन्द्रिक विकास को माना है । यदि हजारों एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा और
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