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सकारात्मक अहिंसा
जन
सकारात्मक अहिंसा और सामाजिक जीवन
सकारात्मक अहिंसा इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि वह हमारे सामाजिक जीवन का आधार है। 'मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।' सामाजिक जीवन से अलग होकर उसके अस्तित्व की कल्पना ही दुष्कर है। सकारात्मक अहिंसक चेतना अर्थात् संवेदनशीलता के अभाव में हम समाज की कोई कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। समाज जब भी खड़ा होता है तब आत्मीयता, प्रेम, पारस्परिक सहयोग और दूसरे के लिए अपने हित-त्याग के आधार पर खड़ा होता है। प्राचार्य उमास्वाति ने कहा है कि एक दूसरे का हित करना यह प्राणीय-जगत का नियम है (परस्परोपग्रहो जीवानाम्--तत्त्वार्थसूत्र 5.21)। पाश्चात्त्य चिन्तकों की यह भ्रान्त अवधारणा है कि संघर्ष प्राणीय जगत् का नियम है । जीवन का नियम संघर्ष नहीं, सहकार है। जीवन सहयोग और सहकार की स्थिति में ही अस्तित्व में आता है और विकसित होता है। सहयोग और अपने हितों का दूसरे के हेतु उत्सर्ग समाज-जीवन का आधार है। दूसरे शब्दों में समाज सदैव ही सकारात्मक अहिंसा के आधार पर खड़ा होता है। निषेधात्मक अहिंसा चाहे वैयक्तिक साधना का आधार हो, किन्तु वह सामाजिक जीवन का आधार नहीं हो सकती। आज जिस अहिंसक समाज की रचना की बात कही जाती है, वह समाज जब भी खड़ा होगा सकारात्मक अहिंसा के आधार पर ही खड़ा होगा। जब तक समाज के सदस्यों में एक-दूसरे की पीड़ा को समझने और उसे दूर करने के प्रयत्न नहीं होंगे तब तक समाज अस्तित्व में ही नहीं पा पायेगा । सामाजिक जीवन के लिए यह आवश्यक है कि हमें दूसरों की पीड़ा का स्व-संवेदन हो और उनके प्रति आत्मीयता का भाव हो। - सामान्य रूप से इस आत्मीयता को रागात्मकता समझने की भूल की जाती है। किन्तु आत्मीयता एवं रागात्मकता में अन्तर है। रागात्मकता सकाम होती है, उसके मूल में स्वार्थ का तत्त्व विद्यमान होता है, वह प्रत्युपकार की अपेक्षा रखती है, जबकि आत्मीयता निष्काम होती है, उसमें मात्र परार्थ की वृत्ति होती है। यही कारण
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