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सकारात्मक हिंसा
इसीलिए वीतराग सन्तों ने फरमाया है - 'संगृहीत सम्पत्ति निर्धनों की धरोहर है और संगृहीत बल निर्बलों की धरोहर है ।'
विवेक का तकाजा है कि मानव धरोहर का दुरुपयोग न करे । जिनकी वह धरोहर है उनके निमित्त ही उनका उपयोग करे । ऐसा उपयोग सेवा कार्य से ही हो सकता है । किसी भी कारण से दुरुपयोग किया तो वह मानसिक द्वन्द्व के मकड़ जाल में फंस जाएगा जो उसे स्वयं पसन्द नहीं है । अतः यह युक्ति युक्त है कि वह उनका सदुपयोग करे । सदुपयोग करने पर ही वह संगृहीत धरोहर के कर्ज भार से मुक्त होगा और करने के राग से मुक्ति भी उसे तभी मिलेगी । यही उसकी मौलिक मांग भी है । अतः यह सिद्ध हुआ कि सेवा कर्म बन्धन का हेतु नहीं है, प्रत्युत वह मुक्त जीवन की ओर अग्रसर करती है अर्थात् सकारात्मक अहिंसा पाप का क्षय करने वाली एवं शांति-मुक्ति दिलाने वाली है ।
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