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सेवा में सदुपयोठा
। श्रीमती प्रसन्ना भंडारी
अहिंसा मानव जीवन की उस सकारात्मक शक्ति का नाम है जो मानव को अपनी क्रियाशक्ति का सदुपयोग करके राग-निवृत्ति या जीवन-मुक्ति की ओर अग्रसर करती है । सदुपयोग करने का विचार आते ही मानव को सेवा करने की प्रेरणा मिलती है क्योंकि केवल सेवा ही वह तत्त्व है जो करने का राग गलाकर प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों से अतीत के जीवन में उसका प्रवेश कराती है। उस जीवन की प्राप्ति ही मानव मात्र की मौलिक मांग है।
वीतराग पुरुषों का फरमाना है कि जीवन में भोग के लिए कोई स्थान ही नहीं है। यदि क्रिया शक्ति का उपयोग भोग में होगा तो रोग और शोक अवश्यम्भावी हैं जो किसी को भी पसन्द नहीं है । अतः स्वाभाविकता रोग और शोक में नहीं, योग और बोध में है जिनकी प्राप्ति प्राप्त-शक्ति का सदुपयोग करने पर ही हो सकती है। सेवा कर्म बन्धन का कारण नहीं
कतिपय दार्शनिकों का मत है कि सेवा-कार्य कर्म-बन्धन का कारण बनते हैं। जैसे कुकर्म करने से मनुष्य को पाप बन्धन होता है, वैसे ही सुकर्म करने से उसे पुण्य-बन्ध होता है। एक को लोहे की बेड़ी बताया है तो दूसरे को सोने की बेड़ी । हैं दोनों बन्धन ही। यह मत युक्ति-युक्त नहीं है।
पहली बात तो यह है कि प्राप्त शक्तियों का उपयोग करना मानव मात्र के लिए अनिवार्य है अन्यथा वे नष्ट हो जावेंगी। इसलिए वह उनका उपयोग सुकर्म में करे। दूसरी बात यह है कि मानव को जो भी शक्तियां मिली हैं वह प्राकृतिक देन है, उसकी स्वयं की उपज नहीं है । वे शक्तियां उसके पास धरोहर के रूप में हैं।
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