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दान, दया का एकांत निषेध रखतरनाक
- पं. बेचरदास दोशी
स्वयं को जैन परम्परा के मानने वाले कितने ही लोग गहस्थों को 'मोह भाव' का डर बताकर शुभ प्रवृत्तियों के करने का निषेध कर रहे हैं और मानवता का प्राधार रूप परोपकार, दान, दया व दुःखियों के देखने से आती 'अनुकम्पा' जैसी शुभ प्रवृत्तियों को अनर्थ (मोह बन्ध) का कारण बता रहे हैं।
सिर में जुएँ पड़ती हैं इसलिए सिर स्वच्छ रखने का प्रयत्न करने के बदले सिर को ही काट डालना-ऐसी यह मान्यता है । इस कार्य में वीतराग संयम शक्य नहीं है । इसमें क्या सराग संयम की धाराधना नहीं करनी है ? निर्मोही दया-करुणा-अनुकम्पा शक्य न हो तो क्या दया, करुणा नहीं करनी चाहिए।
यथार्थता तो यह है कि समोह स्थिति में रहते हुए सद्गुणों के प्राचरण की आदत डालने से धीरे-धीरे अनासक्त दशा तक पहुंचा जा सकता है। किसी मनुष्य को महल पर चढ़ाना हो तो सीढ़ी के आश्रय के बिना चढ़ सके, ऐसा नहीं होता है। इसलिए उसे सीढ़ी का आश्रय लेकर चढ़ना होता है। इसी प्रकार विशुद्ध धर्म के महल के ऊपर चढ़ने के लिए शुभ प्रवृत्तियां सीढ़ी के रूप में हैं। जो इन शुभ प्रवृत्तियों का निषेध करते हैं वे सीढ़ी के बिना ऊपर चढ़ने की बातें करते हैं।
(गुजराती से हिन्दी रूपान्तर)
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