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सेवा-गीत
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जो इसमें रमता उसके हित, सारी वसुधा परम गेह है ।।
सेवा का सुख शाश्वत, स्वाश्रित, उसमें किंचित नहीं विकार । सेवा प्रात्मा का विस्तार ॥
(4) सेवा से सब मल गल जाते, नयी शक्ति नव तेज निखरता । प्रात्म-गुणों का सिंचन होता, दुःख-दरदों का जाल विदरता ।
सेवा से बनते परमातम, दुर्लभ नर जीवन का सार । सेवा आत्मा का विस्तार ॥
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