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सेवा-गोत
- डॉ. नरेन्द्र भानावत
सेवा प्रात्मा का विस्तार ।
(1) जग में हैं जितने भी प्राणी, उन सबके मन और भाव हैं। जैसा मैं सुख-दुःख अनुभवता, वैसा ही उनका स्वभाव है ॥
उनके सुख-दुःख में सहभागी, बनकर करूं सभी को प्यार । सेवा प्रात्मा का विस्तार ।।
( 2 )
भूखों को भोजन नसीब हो, तृषितजनों को निर्मल पानी। रोगी को औषध मिल जाये, भीतजनों को निर्भय वाणी ।।
जो जड़ता में मूछित-बन्धित,
खोल उनके चेतन द्वार । सेवा प्रात्मा का विस्तार ।।
(3) सेवा सौदा नहीं, हृदय का, सहज उमड़ता अमित स्नेह है।
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