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सवा से प्रात्म-विकास
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सेवा से चित्त शुद्धि :
शरणानन्दजी के मत में 'प्राकृतिक नियम के अनुसार वस्तुओं का सदुपयोग व्यक्तियों की सेवा में है और व्यक्तियों की सेवा उनसे 'सम्बन्ध विच्छेद कराने में समर्थ है । इस दृष्टि से न्यायपूर्वक सम्पादित वस्तुओं के द्वारा व्यक्तियों की सेवा करना और किसी भी व्यक्ति से सुख की प्राशा न करना चित्त की शुद्धि का साधन है । जो प्राणी व्यक्तियों से सूख की आशा करता है, वह व्यक्तियों की सेवा नहीं कर सकता और न उनकी ममता से ही रहित हो सकता है । सुख देने की भावना में ही सुख की प्राशा का त्याग निहित है। सुख की आशा का त्याग सूख की दासता से रहित करने में समर्थ है । सुख की दासता से रहित होते ही चित्त स्वतः शान्त हो जाता है । चित्त की शान्ति चित्त को स्वयं शुद्ध कर देती है और चित्त की शुद्धि से चित्त स्वस्थ हो जाता है, जिसके होते ही बड़ी ही सुगमतापूर्वक चित्त का निरोध हो जाता है अथवा चित्त स्वतः अपने अधीन हो जाता है।
अतएव अहिंसा दिखावा नहीं अान्तरिक वृत्ति को करुणामय बनाने का दर्शन है। जिसकी अन्दर की वृत्ति अहिंसक हो गई वह किसी को मार ही नहीं सकता, किसी को कष्ट दे ही नहीं सकता, चाहे उसे जीवन दांव पर ही क्यों न लगा देना पड़े, उसके लिए अहिंसा स्वभाव बन जाती है । गोयनकाजी के शब्दों में
देख दुःखी करुणा जगे, देख सुखी मन मोद । सबके प्रति मैत्री जगे, रहे समत्व का बोध ।।
-परियोजना निदेशक जला महिला विकास अभिकरण, जोधपुर
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