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सकारात्मक अहिंसा
की सेवा तक व्यापक है । दीन दुःखियों की सेवा करने वाला समय आने पर संघ एवं साधु की सेवा नहीं करेगा, यह हो नहीं सकता।
प्रादरणीय सेवामूत्ति डी आर. मेहता साहिब ने दीन-दुःखी एवं विकलांगों की सेवा का बीड़ा उठाया, इससे हजारों लोग लाभान्वित हो गये। जिसके पैर नहीं थे उनके कृत्रिम पैर लग गये, हाथ नहीं थे उनके कृत्रिम हाथ लग गये और वे रोजगार कर अपने पैरों पर खड़े हो गए। भारत ही नहीं देश-विदेश के लोग निहाल हो गये । यह मानवता की सेवा हुई।
प्रागम-साहित्य में भी भ. महावीर के द्वारा कहा गया है
जे गिलाणं पडियरई, से में दंसणेण पडिवज्जइ । जे मं दंसणेण पडिवज्जइ, से गिलाणं पडियरइ त्ति । प्राणाकरणसारं खौं अरहताणं दसणं ।
आवश्यकसूत्र, हारिभद्रीया टीका अर्थ-जो ग्लान या आतुर की सेवा करता है, वह मुझे सेवता है, जो मुझे सेवता है वह ग्लान की सेवा करता है। यही अरिहंतों की आज्ञा-पालन का सार है।
तुलसीदास ने भी परहित के समान अन्य किसी भी धर्म का महत्त्व नहीं माना है।
परहित सरिस धर्म नहीं भाई । परपीड़ा सम नहीं अधमाई ।।
भागवत में सेवा को कलियुग का धर्म माना है । ईसाई धर्म भी विस्तार इसलिए पा सका कि उसने भूखे को भोजन एवं प्यासे को पानी दिया तथा दीन-दुःखियों को गले लगाया । एक व्यक्ति पीड़ा से कराह रहा है। दूसरा व्यक्ति आया वह उसे स्वाध्याय-ध्यान की प्रेरणा देने लगा, तीसरा प्राया वह उसकी सेवा-सुश्रूषा में लग गया। इस समय कौन उसे पीड़ा मुक्त कर रहा है, कौन उसे शान्ति प्रदान कर रहा है ? कहा भी है--भूखे भजन न होय गोपाला, पकड़ो मापकी कंठी एवं माला। .
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