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सेवा से प्रात्म-विकास
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होता । अतः यह पापरूप एवं कर्मबंध का कारण वैसे ही नहीं हो सकती, जैसे रोगी का आपरेशन करते समय डाक्टर के हाथ से मरीज का पेट चीरा जाय । डाक्टर बचाने की भावना से रोगो का आपरेशन करता है। उस दौरान पानी व अग्निकाय के जीवों की हिंसा भी होती है, लेकिन डाक्टर की भावना मरीज को जीवनदान देने की है । इसलिए वह पापबन्ध का कारण नहीं हो सकती । मदर टेरेसा दीन-दुःखियों, बीमारों व कोढियों को प्राश्रम में लाकर उनकी स्वयं सेवा करती है एवं दूसरों से करवाती है। क्या ऐसे दीन-दुःखियों की सेवा करना पापबन्ध का कारण हो सकता है....? कभी नहीं। सेवा निर्जरा का कारण है :
तप से निर्जरा होती है- 'तपसा निर्जरा च' (तत्त्वार्थसूत्र, 9.3) 12 प्रकार के तप में 'वैयावच्च' नवम तप है, जिसका अर्थ है सेवा करना । उत्तराध्ययन सूत्र में अन्यत्र वैयावृत्य से तीर्थङ्कर नाम गोत्र के बन्ध का भी उल्लेख है, यथा
वेयावच्चेणं भन्ते ? जीवे कि जणयइ ।
वेयावच्चेण तित्थयर-नाम-गोत्त-कम्मं निबंधई । अर्थ-हे भगवन् वैयावृत्य-सेवा से क्या फल होता है ? वैयावृत्य से जीव तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन करता है। ___ सेवा से निर्जरा किस प्रकार होती है इसका हम एक उदाहरण लें। अरिष्टनेमी ने बारात के भोजन हेतु वध किए जाने वाले पशुओं के बाड़े को खुलवाकर सब पशुओं को अभयदान दिया। इससे अरिष्टनेमी के कर्मों की निर्जरा का ही अधिक प्रसंग बना। रक्षा करने वाले या सेवा करने वाले का यह भाव कदापि नहीं होता कि यह जीव बचकर पाप करे । यदि किसी जीव को बचाने पर उसके द्वारा प्रागे होने वाले पाप का कारण उसके रक्षक को माना जाय तो भगवान अरिष्टनेमी द्वारा शादी के मौके पर मांसाहारी भोजन बनाने के लिये लाये पशुओं के बाड़े को खोलकर उन्हें मुक्त नहीं कराया जाता। अतः दया, करुणा आदि को बंध का कारण नहीं माना जा सकता। वैयावच्च (सेवा) का तात्पर्य साधु की सेवा तक ही नहीं, प्राणी मात्र
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