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सकारात्मक हिसा
हवा भरी जाती है, उसकी दीवारें पतली होती जाती हैं और अन्त में वह फूट पड़ता है । राग-भाव को पतला करना ही संवर व निर्जरा में कारण है । यदि सेवा में राग-भाव पतला या क्षीण न होकर प्रहंभाव बढ़ता है तो वह सेवा नहीं सौदा है । सौदा किसी भी तरह संवर-निर्जरा का कारण नहीं बन सकता । कहा भी है
सुख-दुःख दोनों बसत हैं ज्ञानी के घट मांहि । गिरिसर दोसे मुकुर में भार भोजबो नाहिं ||
अर्थात् जैसे दर्पण में पर्वत और तालाब दोनों दिखाई देते हैं, परन्तु दर्पण पर्वत से भारी नहीं होता और तालाब के जल से गीला नहीं होता, उसी प्रकार ज्ञानीजन / सेवाभावी सुख-दुःख से पीड़ित नहीं होते, वे दूसरों को साता पहुँचाने हेतु हंसते-हंसते दुःख को सहन करते जाते हैं, अतएव निःस्वार्थ भाव से की गई सेवा कर्म-बन्ध का कारण नहीं बनती, क्योंकि उसमें राग-द्व ेष रूपी कषाय-भावों का संवर्द्धन नहीं होता । यदि इन क्रियाओं के प्रति कर्त्तव्य भाव एवं फल की आशा रूप राग-भाव पैदा हो जाय तो वह सेवा नहीं कुछ और ही हो सकता है ।
सेवा में वसुधैव कुटुम्बकम् का भाव :
सेवाभावी व्यक्ति जाति, लिंग, भाषा एवं सम्प्रदाय के मोह में नहीं फँसेगा । उसके सामने हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन सभी समान होंगे । उन्हें साता / सुख पहुँचाना वह अपना दायित्व समझेगा । सब जीवों के प्रति समत्व की भावना उसका पाथेय बन जाएगा, ऐसा व्यक्ति भूखे को भोजन एवं प्यासे को पानी ऐसे ही पिलायेगा जैसे अपने स्वयं के पोषण के लिए सोचता है |
सेवा आदि कार्यों को परम्परावादी यह कहकर नकारना चाहते हैं कि इससे एकेन्द्रिय एवं चलते-फिरते प्राणियों की हिंसा की संभावना रहती है। हिंसा पाप है, कर्मबन्ध का कारण है । उनका यह सोचना एकांगी है। हिंसा जब संकल्पी होती है, करण और योग की विद्यमानता में होती है, तभी वह कर्मबंध का निमित्त बनती है । सेवा में हिंसा करने कराने एवं अनुमोदन का लेशमात्र भी भाव नहीं
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