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________________ सेवा से आत्म-1 - विकास [ 291 अतएव अहिंसा का नकारात्मक नहीं सकारात्मक पहलू श्रधिक वजनदार है अथवा यह कहा जा सकता है कि सकारात्मक पहलू के बिना नकारात्मक पहलू का अस्तित्व ही सम्भव नहीं । सकारात्मक पहलू से तात्पर्य है - सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् । माध्यस्थभावं विपरीतवृत्ती, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ सभी जीवों से मैत्री, गुणियों के प्रति प्रमोदभाव, दुःखी जीवों के प्रति करुणा तथा विरोधी के प्रति मध्यस्थ भावना रखनी चाहिए । सेवा से स्वार्थ परमार्थ में परिवर्तित सेवा तभी सम्भव है जब व्यक्ति में सब जीवों के प्रति मैत्री हो, दुःखियों के प्रति करुणा हो, दूसरों को सुख पहुंचाने के लिए स्वयं का सुख त्यागने की भावना हो । कबूतर की रक्षा करने वाले राजा मेघरथ के मन में करुणा फूटी, तभी अपनी जान की बाजी लगाकर भी उसको बचाने के लिए स्वयं तराजू में बैठ गए । मैतार्य मुनि की पीड़ा श्राविकाजी द्वारा सहन न होने से सहस्र पाक तेल की अन्तिम शीशी भी मुनि को सहर्ष दे दी । सेवा में स्व तिरोहित हो जाता है, स्वार्थ परमार्थ में बदल जाता है । उपाध्याय कवि अमर मुनिजी ने ठीक ही कहा है वही है जिन्दगी जो नाम पाती है भलाई में, खुदी को छोड़कर जो, पहुंच जाती है खुदाई में । मिसाले बुलबुला है जिन्दगी, दुनिया ए फानी में, जो तुझसे हो सके, करले भलाई जिन्दगानी में ॥ सेवा से राग-भाव तिरोहित : I निरन्तर सेवा कार्यों में रत रहने से भय भाव धीरे-धीरे क्षीण होने लगता है । ज्यों-ज्यों इसकी गहराइयों में व्यक्ति डुबकियां लगाने लगता है, त्यो- त्यों राग-भाव पतला व क्षीण होता जाता है । जैसे बिना फूले हुए गुब्बारे की दीवारें मोटी होती हैं, किन्तु ज्यों-ज्यों उसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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