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सकारात्मक हिंसा
सेवा के क्षेत्र में यह प्रश्न अनेक बार उठता है कि सेवा किस प्रकार की जाय ? इसके समाधान में एक बिन्दु तो यह है कि सेवा शुद्ध भाव से की जाय, अपने लाभ या स्वार्थ की भावना से नहीं । सेवा में दूसरों के हित की भावना हो, अपनी प्रशंसा आदि की कामना से की गई सेवा का लाभ पूरा नहीं मिलता है । आज यह परम्परा चल रही है कि नाम के लिए सेवा की जाती है, किन्तु यह उचित नहीं है । सेवा निष्काम होनी चाहिए । नाम सेवा न हो, निष्काम सेवा हो ।
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सेवा के बदले में कोई भौतिक पुरस्कार चाहना उचित नहीं । सेवा करने के पश्चात् सेव्य के चेहरे पर जो रौनक प्राती है, प्रसन्नता आती है और वह भाव व्यक्त करता है वही सेवा का सबसे बड़ा पुरस्कार है ।
एक बार डॉक्टर मेहता शान्तिविजयजी म. सा. के पास गए, जो योगी थे । उन्हें निवेदन किया कि उन्हें ध्यान-क्रिया सिखायी जाय । शांतिविजयजी म. सा. ने उत्तर दिया कि वे सांसारिक हैं, डॉक्टर हैं । अत सेवा करके अपना जीवन सफल करें। डॉक्टर मेहता ने पूछासेवा किस प्रकार की जाय ? महाराज ने उत्तर दिया- सेवा माँ की तरह की जाय । माँ, पुत्र की लातें भी सहती है । उसी प्रकार सेवार्थी को समभावी भी बनना पड़ेगा ।
सेवा के लिए आवश्यक नहीं है कि कोई बड़ा संगठन हो । सेवा घर से भी शुरू हो सकती है। माता-पिता, भाई-बहिन एवं प्रड़ौसपड़ौस की सेवा करें । बड़े संगठन से जुड़कर सेवा की शुरुआत करने की बात सोचते रहना उपयुक्त नहीं । हम जहां रहते हैं, जहां काम करते हैं, सेवा वहां भी की जा सकती है ।
एक कठिनाई जो सेवा में है वह है झिझक । रास्ते में कोई श्रादमी बेहोश हो गया । उसकी मदद करो तो भीड़ इकट्ठी हो जाएगी । दसबीस लोग सवाल पूछेंगे । कई लोगों को यह घबराहट होती है कि ऐसी स्थिति में वे अनावश्यक रूप से ध्यान का केन्द्र बन जाते हैं । किन्तु सेवा करनी है तो झिझक हटानी पड़ेगी । सेवा करते समय
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