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सेवा के बिना हिंसा अधूरी
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त्मक पक्ष कह सकते हैं । सेवा करने में हिंसा-त्याग के साथ प्राणी को अभयदान भी दिया जाता है । जैन आगम - साहित्य में अभयदान को श्रेष्ठ दान कहा गया है- दाणाण सेट्ठमभयप्पयाणं । जीव को भय से बचाना, उसे जीवन देना, सुरक्षा देना, करुणाशील व्यक्ति ही कर सकता है। निर्दय एवं निष्ठुर के मन में प्रायः ये भाव नहीं जागते । सेवक के हृदय में उदारता होती है । वह अपने सुखदुःख की परवाह किए बिना दूसरे प्राणी का दुःख दूर करने में लग जाता है । वह अपनी सुख-सुविधा को भूलकर पर दुःख हरण में तत्पर रहता है । जो दूसरों को जीवन प्रदान करता है, ऐसा सेवक भगवान् के तुल्य है ।
भगवान् महावीर ने कहा
कि भंते ! जो गिलाणं पडियरइ से धण्णे उदाहु जे तुमं दंसणेण पडिवज्जइ ? गोयमा ! जे गिलाणं पडियरइ । से केणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! जे गिलाणं पडियरइ से मं दंसणेण पडिवज्जइ, जे मं दंसणेण पडिवज्जइ से गिलाणं पडियरइ त्ति, प्राणाकरणसारं खु अरहंताणं दंसणं । से तेणट्ट ेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जे गिलाणं पडियरइ से मं पडिवज्जइ, जे मं पडिवज्जइ से गिलाणं पडिवज्जई आवश्यक सूत्र, हारिभद्रीयावृत्ति, ६
इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा कि भगवन् ! जो दुःखी की सेवा करता है वह धन्य है अथवा प्रापकी सेवा में रहता है वह धन्य है ?
भगवान् ने उत्तर दिया- गौतम ! जो दुःखियों की सेवा करता हैं वही धन्य है ।
गौतम ने पूछा - भगवन् ! ऐसा क्यों फरमाते हैं ?
भगवान् ने उत्तर दिया - गौतम ! जो दुःखियों की सेवा करता है वह मेरे आज्ञापालन का सार है । वह मेरी आज्ञापालन करता है इसलिए मैं ऐसा कहता हूं कि जो दुःखियों की सेवा करता है वह मेरी सेवा (उपासना) करता है ।
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