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सेवा के बिना अहिंसा अधूरी
[ 285 व सम्यक्चारित्र की प्राप्ति न हो। तत्त्वार्थभाष्य आदि टीकाओं में सम्यग्दर्शन के पांच लक्षणों में एक अनुकम्पा भी है। वैसे भी सामान्य जीवन में साधारण विवेक के अनुसार भी अगर अनुकम्पा नहीं है तो व्यक्ति में मानवता का ही प्रभाव है और वह पत्थर के समतुल्य है । तथ्य यह है कि पत्थरों की मुक्ति नहीं होती है। दिगम्बराचार्य वीरसेन ने धवला टीका में 'करुणा' को जीव का स्वभाव कहा है तथा यह कहा है कि यदि करुणा, दया आदि शुभ भावों से मुक्ति प्राप्त नहीं हो तो मुक्ति कदापि मिल ही नहीं सकती।
कुछ विद्वानों से चर्चा करने पर यह भी निष्कर्ष निकला कि मूल आगमसाहित्य में धर्म एवं पुण्य में भेद नहीं किया गया। पाप और पुण्य में भेद अवश्य है जिसका उल्लेख नवतत्त्वों की चर्चा में विशेष रूप से आता है। सम्भवतः मध्यकालीन और अर्वाचीन विद्वानों ने पुण्य एवं धर्म में भेद स्थापित किया है जबकि मूल आगमसाहित्य में इस भेद को दर्शाया नहीं गया है।
अहिंसा के सकारात्मक स्वरूप में करुणा, सेवा, सहायता, वात्सल्य, अनुकम्पा, मैत्री भाव आदि का समावेश होता है। 'मैत्री' शब्द का उल्लेख आगमों में 'मित्ती मे सव्वभूएसु' 'मित्ति भूएसु कप्पए' आदि वाक्यों में अनेक बार आता है, किन्तु बाद में उसकी उपेक्षा दर्शन और जीवनके स्तर पर हुई। मित्र शब्द स्नेह, सौहार्द एवं सहयोग का प्रतीक है। इस दृष्टि से मित्र वह है जो मदद करे । यहां पर यह कहना उचित होगा कि भगवान् महावीर ने जन-साधारण के लिए सीधी-सरल बात कही। इसके लिए वे विख्यात भी थे। अतः उनके सिद्धान्तों का अर्थ भी सीधा-सरल लगाया जाना चाहिए। यह उचित नहीं है कि ऐसी सीधी एवं सरलता से कही हुई बात का अर्थ क्लिष्ट या विकृत किया जाय । .
कई बार यह कहा जाता है कि 'मैत्री' शब्द का अर्थ है- दूसरों से वैर नहीं करें, किन्तु उसका यह अर्थ अपर्याप्त एवं भ्रामक है।
1 तदेवं प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्याभिव्यक्तिलक्षणं तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ।-सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र, 1.2
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