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सेवा के बिना अहिंसा अधूरी
0 श्री डी. प्रार. मेहता
अहिंसा जैन धर्म का प्रमुख सिद्धान्त और विशिष्ट पहचान है । अन्य भारतीय परम्परामों में भी अहिंसा का महत्त्व प्रतिपादित है । महाभारत में भीष्म ने अहिंसा को 'परमो धर्मः' बताया है । परन्तु कई जैन विद्वानों एवं मनोषियों ने 'अहिंसा' शब्द का उपयोग मात्र नकारात्मक रूप में किया है । दार्शनिक रूप से ऐसा करना भ्रान्तिपूर्ण है और जीवन में भी अहिंसा के नकारात्मक अर्थ से बहुत क्षति
इस शताब्दी में विश्व के एक महान् सेवार्थी डॉ. अल्बर्ट स्वाइट्जर (Dr. Albert Switzer) ने अफ्रीका के घने जंगल में एक पुस्तक लिखी-Indian Philosophical Thought अर्थात् 'भारतीय दर्शन विचार' । यद्यपि स्वाइटजर एक पादरी थे, ईसाई धर्म में उनकी विशेष आस्था थी, तथापि इस पुस्तक में उन्होंने जैन-धर्म की भूरि-भूरि प्रशंसा की। विशेष रूप से 'अहिंसा' सिद्धान्त के बारे में उनका कहना था कि इस सिद्धान्त का जैन-धर्म द्वारा दार्शनिक स्वरूप देना विश्व के आध्यात्मिक एवं दार्शनिक इतिहास की एक प्रमुख घटना है। परन्तु वे इस बात से खिन्न थे कि जैन धर्म में इस सिद्धान्त का अर्थ सामान्यतः नकारात्मक या अभावात्मक रूप में ही दिया गया है।
अल्बर्ट स्वाइट्जर के अतिरिक्त अनेक विद्वान् भी जैन-दर्शन में अहिंसा का अर्थ नकारात्मक ही लेते हैं । यही नहीं अहिंसा को नकारात्मक ही समझते हैं । अनेक बार ऐसा मत भी व्यक्त किया जाता है कि करुणा मोह का ही एक रूप है। यह भी कहा जाता है कि करुणा, दया, सेवा इत्यादि से पुण्य-बन्ध होता है, जिससे व्यक्ति स्वर्ग
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