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दया-दान के दोहे
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अपना भी होवे भला, भला जगत का होय । जिससे सबका हो भला, शुद्ध धरम है सोय ।। 11 ।।
सद् गृहस्थ की संपदा, जन हितकारी होय । कर दे दूर विपन्नता, मंगलकारी होय ॥ 12 ॥
द्वष और दुर्भाव का, रहे न नाम निशान । स्नेह और सद्भाव से, भरलें तन-मन प्राण ।। 13 ॥ जगे प्यार ही सर्वदा, रोम-रोम लहराय । धर्म गंग ऐसी बहे, द्वेष द्रोह धुल जाय ॥ 14 ।। कर्मकाण्ड ना धर्म है, धर्म न बाह्याचार । धर्म चित्त की शुद्धता, करुणा सेवा प्यार ।। 15 ।।
करें मित्र से प्यार सब, यही जगत व्यवहार । लेकिन सज्जन तो करें, वैरी से भी प्यार || 16।। देख दु:खी करुणा जगे, देख सुखी मन मोद । सबके प्रति मैत्री जगे, रहे समत्व का बोध ।। 17 ।। मैत्री करुणा प्यार से, तन मन पुलकित होय । मानव जीवन सफल हो, सब विध मंगल होय ।। 18 ।। मैत्री जागे बलवती, रोम-रोम लहराय । फूटे झरना प्यार का, तन-मन मंगल छाय ।। 19 ।।
ज्यों इकलौते पूत पर, उमड़े मां का प्यार । त्यों प्यारा लगता रहे, हमें सकल संसार ।। 20॥
मानव-मानव में जहां, भेदभाव न होय । निज हित, पर हित, सर्वहित, धर्म सत्य है सोय ।। 21 ॥ भला होय सब जगत का, सुखी होय सब लोग । दूर होय दारिद्र-दुःख, दूर होय भव रोग ।। 22 ।।
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