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दया-दान के दोहे
7 श्री सत्यनाराण गोयनका
पर-सेवा ही पूण्य है, पर-पीडन ही पाप । पुण्य किये सुख ही मिले, पाप किये दुःख ताप ॥1॥ जो चाहे दुर्गति न हो, जो चाहे सुख सार । पर पीड़न से दूर रह, कर नित पर उपकार ।। 2 ।। करे तो कर उपकार ही, मत कर अपकार । उपकारों से सुख बढ़े, दुःखदायी अपकार ।। 3 ।। अब पर हित सेवा करे, धर्म सुमन खिल जाय । जब निज हित सेवा करे, धर्म सुमन मुरझाय ।। 4 । लेने के हित जो दिया, वह तो है व्यवसाय । देने के हित जो दिया, दान वही कहलाय ।।5।। दान सुखों का मूल है, करे परिग्रह दूर । हल्का फुल्का चित्त रहे, मंगल होय भरपूर ।। 6 ।। परिजन का पालन करे, देवें दान उन्मुक्त। सदा मुक्त ऋण से रहें, पावें सुख उपयुक्त ॥7॥ अस्त्र-शस्त्र वाहन भुवन, स्वर्ण रत्न का दान । सब दानों से उच्च है, श्रेष्ठ धर्म का दान ।। 8॥ ज्यू-ज्यू अपने दान से, बहुजन हित सुख होय । त्यू -त्यूँ अपने पुण्य की, बेल पल्लवित होय ॥9॥ अपना भी पालन करें, पालें निज परिवार। औरों का पालन करें, गही धर्म का सार ।। 10॥
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