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________________ 278 ] सकारात्मक हिसा 71. सच्चा सेवक वही हो सकता है जिसने अपनी सेवा की हो । अपनी सेवा करने के लिए अपने को अपने सम्बन्ध में ही विचार करना होगा अर्थात् अपने जाने हुए असत् का त्याग करने पर ही मानव अपनी सेवा कर सकता है । अपनी सेवा करने पर जीवन में सेवा की अभिव्यक्ति होती है । जिस प्रकार सुगन्धित पुष्प से सुगन्ध स्वतः फैलती है उसी प्रकार जिसने अपनी सेवा की है उसके द्वारा सभी की सेवा स्वतः होने लगती है । श्रतः सेवक होने के लिए अपनी सेवा करना अनिवार्य है । - 72. सेवक हुए बिना की हुई सेवा, सेवा के रूप में भोग है, सेवा नहीं । सेवा के रूप में किया हुआ भोग व्यक्ति को गुणों के अभिमान में श्राबद्ध कर देता है । गुणों का अभिमान समस्त दोषों की भूमि है । उसके नाश हुए बिना जीवन में निर्दोषता की अभिव्यक्ति सम्भव नहीं है । निर्दोषता के बिना सच्ची सेवा हो ही कैसे सकती है ? अर्थात् कदापि नहीं हो सकती । अतः सेवा के रूप में भोग का त्याग अनिवार्य है । 73. सुख भोग की लालसा से रहित होने पर ही सेवा का भाव उदित होता है । सेवा भाव है, कर्म नहीं । सेवाभाव से भावित कर्म श्रास्तिक के लिए पूजा, अध्यात्मवादी के लिए राग निवृत्ति का माध्यम और भौतिकवादी के लिए सुन्दर समाज के निर्माण में हेतु है । अतः सेवाभाव की अभिव्यक्ति के लिए सुख भोग के प्रलोभन का त्याग अनिवार्य है । 74. दूसरों के प्रति किया हुआ ही अपने प्रति हो जाता है । 75. प्रलोभन रहित भलाई ही वास्तव में भलाई है । 76. बुराई के बदले में की हुई भलाई बुराई को खा लेती है । 77. वस्तुओं की दासता ही दरिद्रता की जननी है । 78 वस्तुओं के सदुपयोग में ही आवश्यक वस्तुत्रों की प्राप्ति निहित है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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