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सर्वहितकारी प्रवृति और सेवा
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67. समाज की बहुत बड़ो शक्ति राष्ट्र के बनाने में व्यर्थ हो जाती है उस पर भी सर्व प्रिय राष्ट्र का निर्माण नहीं हो पाता । इस समस्या को हल करने के लिए समाज के सेवकों को परस्पर मिलकर विचार-विनिमय द्वारा किसी ऐसी पद्धति का निर्माण करना चाहिये जो सर्वप्रिय राष्ट्र बनाने में समर्थ हो । यह तभी सम्भव होगा जब सेवा करने वाला विभाग सेवा को अपनी खुराक न बनाये और सेवक होकर सम्मान का दास न हो जाय । अतः सेवा को सजीव बनाने के लिए वासनाओं का त्याग अनिवार्य है।
68. सच्चे सेवक के पीछे समाज स्वयं चलता है और उसे समाज का यथेष्ट ज्ञान रहता है । जिसे समाज का यथेष्ट ज्ञान है वही समाज में से सर्व-प्रिय राष्ट्र का निर्माण कर सकता है । अतः सेवकों के द्वारा ही राष्ट्र का निर्माण आवश्यक है।
69. प्रत्येक मत, सम्प्रदाय तथा वाद के व्यक्ति समाज के प्रति हित कामना रखते हैं और अपने-अपने ढंग से समाज के उत्थान में भी भाग लेते हैं, परन्तु वे परस्पर विचार-विनिमय नहीं करते । उसका परिणाम यह होता है कि समाज का कुछ भाग प्रत्येक हितचिन्तक के आधीन हो जाता है । इस कारण समाज अनेक विभागों में विभाजित हो जाता है और सेवा करने वाले वर्ग परस्पर संघर्ष में समाज की शक्ति का अपव्यय करने लगते हैं।
अतः समाज की शक्ति का सव्यय करने के लिए सभी समाज सेवियों को परस्पर विचार-विनिमय करना अनिवार्य है।
70. सेवा की सजीवता तथा सफलता इसी में है कि जिसकी सेवा की जाय उसमें स्वतः सेवा का भाव जागृत हो जाय और जो सेवा करे उसमें अपने अधिकार का त्याग पा जाय । जब सेवक के जीवन में से अधिकार लालसा सर्वांश में नष्ट हो जाती है तब उसकी की हुई सेवा विभु होकर समाज में सद्भावनाओं की अभिव्यक्ति करने में समर्थ होती है । अतः सेवक को सेवा के फल की तो कौन कहे, सेवक कहलाने की लालसा का भी त्याग करना अनिवार्य है।
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