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सकारात्मक अहिंसा
पर भी सर्व-हितकारी सद्भाव उत्तरोत्तर बढ़ता ही रहता है, जिससे जो करना चाहिए वह होने लगता है और जो नहीं करना चाहिए उसकी उत्पत्ति ही नहीं होती । अतः विवेक पूर्वक अहितकर चेष्टाओं का निरोध अनिवार्य है।
63. अपने निर्माण में समाज का विकास निहित है, क्योंकि सुन्दर व्यक्तियों के पोछे ही समाज चलता है । की हुई भूल न दोहराने से अपना निर्माण स्वतः हो जाता है । यह अनन्त मंगलमय विधान है । अतः अपने निर्माण के लिए सतत प्रयत्नशील रहना अनिवार्य है।
64. राष्ट्र का निर्माण समाज के उन व्यक्तियों द्वारा होना चाहिये जिन्होंने क्रियात्मक रूप से जन-समाज की सेवा की है अर्थात् सेवा करने वालों के द्वारा ही राष्ट्र का निर्माण ठीक-ठीक हो सकता है, पर उन्हें स्वयं संचालक नहीं होना चाहिये। वे राष्ट्र और प्रजा के बीच में श्रद्धा और विश्वास को बढ़ाते रहें। प्रजा में राष्ट्र के प्रति श्रद्धा और राष्ट्र में प्रजा के प्रति प्रियता उत्तरोत्तर बढ़ती रहे। यह कार्य समाज-सेवी व्यक्ति द्वारा ही हो सकता है।
65. सेवा करने वाले महानुभावों में जो ऐसे महामानव हैं जिनका जीवन सेवा और प्रीति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, जिनमें से सेवक होने का अभिमान भी गल गया है वे ही अनन्त के मंगलमय विधान को भलीभांति जानते हैं । जो विधान अनन्त के विधान से अनुप्राणित नहीं है वह विधान सर्वहितैषी नहीं हो सकता और न उसके द्वारा विश्व में शान्ति की स्थापना ही हो सकती है। अतः राग-रहित होकर वास्तविक विधान का निर्माण करना अनिवार्य है।
66. सच्चा सेवक वही हो सकता है जिसके जीवन में राष्ट्र का संचालक होने का प्रलोभन न रहे । सम्मान की दासता ने अभिमान को जन्म देकर सेवा-भाव को नष्ट किया है। इस कारण सेवक राष्ट्र का निर्माता हो सकता है, किन्तु राष्ट्र का संचालक नहीं। सेवक का शासन राष्ट्र और प्रजा दोनों के हृदय पर स्वतः होता है। अतः सेवक को राष्ट्र के संचालक होने के प्रलोभन का त्याग करना अनिवार्य है।
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