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सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा
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है। इस दृष्टि से दुःख स्वयं दुःख के नाश का साधन है। अतः दुःख
आने पर भयभीत होना भूल है । दुःख के प्रभाव में ही दुःख का नाश निहित है।
57. प्राकृतिक विधान के अनुसार प्राणी मात्र का उद्गम एक है और सभी की स्थिति भी एक ही में है । अतः विनाश भी सभी का एक ही में है। इस दृष्टि से हम सब एक हैं। अतः परस्पर में प्रीति की एकता स्वीकार करना अनिवार्य है। ____58. प्रीति की एकता स्वीकार करते ही प्राप्त बल का सदुपयोग स्वतः होने लगता है। कारण कि प्रीति बल का उपयोग अहितकर कार्यों में नहीं होने देती। अतः बल का व्यय उपयोगी कार्यों में ही होने लगता है, जिसके होते ही भेद, भिन्नता तथा निर्बलता सदा के लिए मिट जाते हैं । अतः प्रीति की एकता में ही समाज का विकास निहित है।
59. ज्ञान के अनुरूप भाव और सद्भाव के अनुसार व्यवहार स्वतः होता है। अतः निज-ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित पवित्र भाव सुरक्षित रखना अनिवार्य है। ___60. किसी-न-किसी नाते हम सब एक हैं और इन्द्रियज्ञान की दृष्टि से अनेक हैं । अनेक मानने पर भी सभी में एक ही का दर्शन करना और परस्पर कुटुम्बी जनों की भांति सम्बोधन करना नागरिकता की जागृति में परम साधन है ।
61. आदर तथा प्यार की भूख प्राणी मात्र को है और उसके आदान-प्रदान की सामर्थ्य मानव मात्र में है। परन्तु किसी गुण विशेष के दर्शन बिना आदर तथा प्यार देने की अभिरुचि नहीं होती। मानव यह भूल जाता है कि गुणों के आधार पर दिया हुया प्रादर तथा प्यार अपनी निर्बलता का परिचय है, अादर तथा प्यार नहीं। अतः जिसकी भूख स्वाभाविक है उसका देना बिना किसी हेतु के आवश्यक है।
62. अहितकर चेष्टाओं का अन्त हो जाने पर हितकर चेष्टाएँ यथाशक्ति स्वतः होने लगती हैं। इतना ही नहीं, क्रिया सीमित होने
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