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सकारात्मक हिसा
योग द्वारा उत्पादित वस्तुओं का संग्रह करना अथवा वस्तुओंों को सिक्के के रूप में परिवर्तित करना दरिद्रता का आवाहन करना है।
52. दरिद्रता किसी परिस्थिति विशेष में नहीं है । अपितु तृष्णा की वृद्धि में ही है । यदि मानव मिली हुई वस्तुनों का दुरुपयोग न करे तो आवश्यक वस्तुएँ अनन्त के मंगलमय विधान से स्वतः प्राप्त होती हैं । वस्तुओं की दासता तथा उनके दुरुपयोग ने ही दरिद्रता को जन्म दिया है ।
53. अपने से अधिक सम्पन्न व्यक्तियों को देखकर प्रसन्न न होना, अपितु अपने व्यक्तिगत जीवन में प्रभाव की अनुभूति कर क्षुब्ध होना अपने को दरिद्रता से मिला लेना है अथवा यों कहो कि अपने जीवन में दरिद्रता की स्थापना करना है ।
54. अपेक्षाकृत भाव और प्रभाव की अनुभूति प्रत्येक परिस्थिति में विद्यमान है । इस दृष्टि से समस्त परिस्थितियाँ समान अर्थ रखती हैं । विचारशील साधक ग्रर्थ को अपनाकर अपने को परिस्थितियों की दासता से मुक्त कर लेते हैं । परिस्थितियों की दासता से मुक्त होते ही उनके सदुपयोग की सामर्थ्य मंगलमय विधान से स्वतः श्रा जाती है और फिर अभाव और भाव दोनों का सदुपयोग बड़ी सुगमता से हो जाता है, जिसके होते ही दीनता तथा अभिमान की अग्नि सदा के लिए बुझ जाती है और दरिद्रता का नाश सदा के लिए हो जाता है ।
55. जिस प्रकार व्यक्तिगत विकास से पारिवारिक विकास स्वतः होता है उसी प्रकार निकटवर्ती जन-समाज के विकास से नागरिकों का विकास स्वतः होता है । अतः अपने पड़ोसी के हित का ध्यान अपने समान ही रखना श्रावश्यक है ।
56. अपने दुःख से दूसरों को दुःखी करना अपने दुःख को बढ़ाना है और दूसरों के दुःख से दुःखी होना अपने दुःख को मिटाना है । दुःख का पूरा प्रभाव होने पर उसके कारण का ज्ञान स्वतः हो जाता है जिसके होते ही दुःख के नष्ट करने की सामर्थ्य अपने आप आ जाती
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