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सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा
[ 273 सम्पत्ति पर नहीं है । अतः रोगियों, बालकों और सत्य की खोज में रत व्यक्तियों की सेवा संग्रहीत सम्पत्ति द्वारा करना अनिवार्य है। ___46. समाज का जो वर्ग उत्पादन में समर्थ है वह यदि वर्तमान उपयोगिता से अधिक संगृहीत सम्पत्ति का अधिकारी अपने को मान लेता है तब उसके जीवन में मिथ्या अभिमान, आलस्य तथा विलास की उत्पत्ति हो जाती है जो उसके सर्वनाश में हेतु है।
47. उपार्जन करने वाले वर्ग को अपने दैनिक श्रम का कुछ भाग अवश्य उस वर्ग के लिए समर्पित करना चाहिए जो वर्ग उपार्जन में असमर्थ है। ___48. अपने श्रम का पूरा मूल्य अपने पर व्यय करना अथवा मनमाने ढंग से विवेक विरोधी कार्यों में लगाना अनर्थ है । कारण कि प्रत्येक व्यक्ति समाज के सहयोग से ही पोषित होता है । इसलिए उस काल का ऋण उपार्जन काल में चुकाना अनिवार्य है।
49. व्यक्तिगत सम्पत्ति के समान सामूहिक सम्पत्ति की सुरक्षा अनिवार्य है और उसका सदुपयोग सावधानीपूर्वक करना है, किन्तु सुख भोग की दृष्टि से किसी भी सम्पत्ति का व्यय नहीं करना है, हित की दृष्टि से करना है। किसी को हानि पहुँचाकर किसी की सेवा करना, सेवा नहीं है अपितु भोग है। भोग के राग का नाश करने के लिए मर्यादित भोग करना है। यदि विचारपूर्वक भोग-वासना नष्ट हो जाय तो भोग प्रवृत्ति अपेक्षित नहीं है। भोग की वास्तविकता जानने के लिए ही मर्यादित भोग अपेक्षित है । अतः वस्तुओं का सम्पादन व्यक्तियों की सेवा में है, अपने सुख-भोग में नहीं । स्वार्थ-भाव का अन्त हुए बिना निर्लोभता की अभिव्यक्ति नहीं होती और उसके बिना दरिद्रता का नाश नहीं हो सकता, यह निर्विवाद सिद्ध है।
50. मिली हुई वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य द्वारा आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन में भाग लेना और उत्पादित वस्तुओं को विश्व की सेवार्थ व्यय करना दरिद्रता-नाश का सुगम उपाय है।
51. मिली हुई वतुओं को व्यक्तिगत मान लेना और उनके उप
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