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________________ 272 J सकारात्मक हिंसा होना, वस्तुओं की दासता को सुरक्षित रखना है और कुछ नहीं । वस्तुओं की दासता दरिद्रता की जननी है । 43. प्राप्त की ममता और अप्राप्त की कामना ने लोभ को जन्म दिया । लोभ ने अर्थ का मूल्य बढ़ा दिया और उसने सच्चरित्रता का अपहरण कर लिया । जिसके होते ही परिस्थिति परिवर्तन में अभिरुचि जाग्रत हो गई । प्रकृति से मिली हुई परिस्थिति के सदुपयोग पर दृष्टि न रही । उसका परिणाम यह हुआ कि वस्तुओं में ही जीवन बुद्धि हो गई, जिसने मानव को मानव नहीं रहने दिया । कारण कि वस्तुओं के आधार पर ही समाज में व्यक्ति का मूल्यांकन होने लगा । इस कारण बौद्धिक तथा शारीरिक श्रम अथ के अधीन हो गये। जिसके होते ही परस्पर में अनेक प्रकार के द्वन्द्व उत्पन्न हो गये । श्रावश्यक वस्तु प्राप्ति के विधान को भूल कर व्यक्ति विधान-विरोधी उपायों द्वारा अर्थ का संग्रह करने लगा । संग्रह नाश का हेतु है । अर्थात संग्रही प्राणी अपनी मृत्यु का आप आवाहन करता है । अतः मानव-जीवन में अर्थ की दासता का कोई स्थान ही नहीं है । प्रर्थ समाज की धरोहर है और कुछ नहीं । 44. जब मानव-समाज बालकों और रोगियों की यथेष्ट सेवा नहीं करता तब भावी समाज के मन में एक विद्रोह उत्पन्न होता है जो उस प्रवृत्ति को जन्म देता है जिससे सुखी और दुःखी में संघर्ष होने लगता है । सुखी उदारता एवं दुःखी त्याग के बल को अपना नहीं पाता । दुःखी में तृष्णा और सुखी में लोभ की वृद्धि होती रहती है जो अनर्थ का मूल है । यदि मानव समाज प्रत्येक बालक को अपना बालक मानले और रोगियों की सेवा का दायित्व व्यक्ति पर न रहकर सामूहिक हो जाय तो बड़ी ही सुगमतापूर्वक विद्रोह की भावना मिट सकती है । 45. प्राकृतिक नियम के अनुसार संगृहीत सम्पत्ति समाज की है, उसी वर्ग की है जो वर्ग उपार्जन में असमर्थ है अथवा जिन्हें प्रवकाश नहीं है । जो वर्ग उपार्जन में समर्थ है उसका अधिकार संगृहीत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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