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________________ सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा 1 269 हित करता है, उसी साधन से सेवा करता है । बाह्य वस्तुओं के संगठन से किसी भी प्राणी का हित नहीं हुआ तो फिर उन वस्तुओं के संगठन से सेवा कैसे हो सकती है ? ___25. वस्तुओं का संग्रह करना विश्व का ऋणी होना है। अतः वस्तुओं को विश्व के कार्य में लगा देना ऋण से मुक्त होना है, सेवा करना नहीं । जब प्राणी विश्व के ऋण से मुक्त हो जाता है, तब उसमें प्रेमपात्र से सम्बन्ध करने की शक्ति आ जाती है। प्रेमपात्र से सम्बन्ध होते हो प्रमपात्र के ऐश्वर्य तथा माधुर्य से स्वत: सेवा होने लगती है, अर्थात् प्रोति प्रीतम का स्वभाव है । सेवक तथा सेवा, प्रीति तथा प्रीतम एक वस्तु है। ___ 26. सेवा करने के लिए सेवक होना अनिवार्य है । सेवक होने के लिए सद्भाव-पूर्वक प्रेमपात्र का होना अनिवार्य है । जिस प्रकार युवावस्था आने पर ही शिशु को युवावस्था का यथार्थ ज्ञान होता है, उसी प्रकार सेवा करना किसी को सिखाया नहीं जा सकता । एक-एक सेवक के पीछे करोड़ों मनुष्य अनुसरण करने के लिए दौड़े, किन्तु वे सब मिल कर एक भी सेवक उत्पन्न नहीं कर पाये। 27. जिसका हृदय सार्वजनिक दुःख से दुखी होता है और वह जब सेव्य का हो जाता है, तब सेव्य की कृपा से सेवा करने की शक्ति स्वतः आ जाती है । पुण्यकर्म से त्याग करने की शक्ति आती है और त्याम से सेवक होने की शक्ति पाती है । सेवक होने पर सेवा स्वतः उत्पन्न होती है। 28. संसार तथा प्रेमपात्र दोनों का प्रेम पाने के लिए सेवा करना परम प्रावश्यक है । जो प्राणी संसार से विमुख होकर प्रेमपात्र का बन जाता है उसमें सेवा करने की शक्ति स्वयं आ जाती है। अतः सेवक होने के लिए प्रत्येक प्राणी सर्वदा स्वतन्त्र है । ____ 29. सेवक होना उन्नति का साधन है, परन्तु सेवक कहलाना अवनति का कारण है। 30. जिस प्रकार नदी की प्रगति सदैव समुद्र की मोर ही रहती है, उसी प्रकार सेवक की प्रगति सदैव सेव्य की ओर रहती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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