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________________ 270 ] सकारात्मक अहिंसा ह । है। जिस प्रकार नदी के सामने रुकावट आने पर नदी की गति तीव्र हो जाती है, उसी प्रकार सेवक के सामने प्रतिकूलता पाने पर, सेवा की गति और भी तीव्र हो जाती है अर्थात् प्रतिकूलता सेवक का उत्थान करती है, पतन नहीं। 31. सेवक के जीवन में ज्ञान के अनुरूप भाव तथा क्रिया होती है अर्थात् सेवक की क्रिया तथा भाव ज्ञान में विलीन होते हैं । 32. सेवा नित्य स्वतन्त्रता की ओर ले जाती है । 33. सेवक संसार का चिन्तन नहीं करता, प्रत्युत संसार सेवक का चिन्तन करता है। 34. सेवक संगठन के पीछे नहीं दौड़ता, प्रत्युत संगठन सेवक के पीछे दौड़ता है। 35. सेवक के जीवन में दीनता तथा अभिमान के लिए कोई स्थान नहीं रहता। 36. जिसने व्यक्तिगत सुख के लिए ही शारीरिक तथा बौद्धिक श्रम का उपयोग किया है उसी ने व्यक्ति और समाज की एकता भंग की है, जिसके होने से सर्वात्म-भाव सुरक्षित नहीं रहा और व्यक्ति अभिमान तथा दीनता में प्राबद्ध हो गया। इस कारण आर्थिक विषमता सुदृढ़ हो गई । अतः शारीरिक तथा बौद्धिक श्रम का उपयोग समाज के हित में ही करना अनिवार्य है। तभी आर्थिक स्वतंत्रता रह सकती है। 37. बालक, रोगी, वृक्ष और पशु इनकी सेवा का दायित्व मानव मात्र पर है। इनकी यथेष्ट सेवा किये बिना न तो दरिद्रता ही नष्ट होगी और न समाज आवश्यक वस्तुओं से ही परिपूर्ण होगा । अतः संगृहीत सम्पत्ति रोगी, बालक, वृक्ष तथा पशुओं की ही है। ___38. मिली हुई वस्तुओं की ममता का त्याग, अप्राप्त वस्तुओं की कामना का त्याग तथा मिली हुई वस्तुओं का सदुपयोग करने पर, प्राकृतिक विधान के अनुसार प्रावश्यक वस्तुएँ स्वतः प्राप्त होने लगती हैं कारण कि निर्लोभता युक्त उदारता दरिद्रता को खा लेती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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