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सकारात्मक अहिंसा (प्यार) हो । ऐश्वर्य तथा माधुर्य स्वामी का स्वरूप है । अतः यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि सेवक में स्वामी निवास करता है। ... 15. सेवक में सेवा करने से कभी थकावट नहीं पाती, प्रत्युत ज्यों-ज्यों सेवा बढ़ती है, त्यों-त्यों उसकी शक्ति भी बढ़ती जाती है।
16. सेवक के हृदय में सदैव व्याकुलता बनी रहती है और वह व्याकुलता की अग्नि सेवक को सेव्य से अभिन्न कर देती है। __17. सेवक दो प्रकार के होते हैं - एक तो गङ्गा की भाँति प्रत्यक्ष जन-समाज के सामने लहराते हैं और दूसरे हिमालय की भाँति अचल होकर मूक सेवा करते हैं ।
18. सेवा किये बिना संसार का राग स्वाभाविक निवृत्त नहीं होता। ____19. सेवा से भिन्न सभी साधन संसार को मृतकवत् जीवित रखते हैं । सेवा संसार को खा जाती है, मृतक नहीं बनाती, अर्थात् सेवक की निष्ठा समाधि से प्रतीत होती है, अथवा यों कहिये कि उससे प्रवृत्ति तथा निवृत्ति दोनों ही अवस्थाएँ निवृत्त हो जाती हैं।
20. सभी साधक सेव्य को प्यार करते हैं और सेवक को सेव्य प्यार करता है । अतः प्रमपात्र का प्रेम पाने के लिए सेवा करना परम अनिवार्य है।
21. सेवा करने के लिए बाह्य वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती। बाह्य वस्तुओं के संगठन से तो पुण्य कर्म होता है।
22. सेवा वही कर पाता है, जिस पर सेव्य (प्रमपात्र) की कृपा होती है, अर्थात् भक्तों तथा सन्तों के अतिरिक्त और कोई भी प्राणो सेवा नहीं कर पाता। ___23. साधारण प्राणी वस्तुओं के संगठन से होने वाली प्रवृत्तियों को सेवा मानते हैं, किन्तु विचार-दृष्टि से वह सेवा नहीं है । सेवा करने की शक्ति तो स्वामी के प्रसाद से ही आती है।
24. जिस अंश में प्राणी अपनी सेवा कर पाता है, उसी अंश में वह दूसरों की सेवा कर पाता है, अर्थात् जिस साधन से प्राणी अपना
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