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सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा
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5. सेवक के सामने प्रत्येक परिस्थिति अभिनय के स्वरूप में श्राती है और उसे सेव्य को देकर चली जाती है ।
6. सेवक पर किसी भी परिस्थिति का लेशमात्र भी प्रभाव नहीं होता ।
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7. सेवक के अन्तःकरण से क्रियाजन्य रस की प्रासक्ति स्वतः निवृत्त हो जाती है ।
8. जिस निवृत्ति को योगी योग से और विचारशील विचार से प्राप्त करता है, सेवक उसी को वर्तमान परिस्थिति के सदुपयोग से प्राप्त कर लेता है, अर्थात् सेवक को संसार से संघर्ष नहीं करना पड़ता, क्योंकि सेवक की दृष्टि में ( प्राकृतिक विधान के अनुसार ) अपने आप आई हुई प्रत्येक परिस्थिति समान अर्थ रखती है ।
9. विषयी बेचारा जिस यश और कीर्ति के पीछे दौड़ता है, वह यश और कीर्ति सेवक के पीछे दौड़ती है, किन्तु उसको पकड़ नहीं पाती, अर्थात् विषयी जिसका दास है, वह सेवक की दासी है ।
10. जिस प्रकार स्वधर्मनिष्ठ राष्ट्र प्रजा से लिए हुए टैक्स को प्रजा के हित में ही बांट देता है, उसी प्रकार सेवक संसार की श्रोर से आई हुई शरीर आदि सभी वस्तुत्रों को संसार के हित में ही बांट देता है ।
11. जिस प्रकार व्यापारी का व्यापार धन में विलीन होता है, उसी प्रकार सेवक की सेवा सेव्य ( प्रेम पात्र) में विलीन होती है ।
12. जिस प्रकार अग्नि ज्यों-ज्यों प्रज्वलित होती जाती है, लकड़ी त्यों-त्यों अग्नि बनती जाती है, उसी प्रकार ज्यों-ज्यों सेवा प्रबल होती जाती है, त्यों-त्यों सेवक की सत्ता सेव्य से अभिन्न होती जाती
है ।
13. सेवक में स्वामी ( प्रेम पात्र) निवास करता है, क्योंकि स्वामी के बिना सेवा हो ही नहीं सकती ।
14. सेवा तभी हो सकती है, जब ऐश्वर्य ( बड़प्पन) तथा माधुर्य
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