________________
266 ]
सकारात्मक अहिंसा
पड़ता है, अधिकार नहीं । मानवता विकसित होने पर अधिकारलालसा शेष नहीं रह जाती, और जब प्रविवेक के कारण मानवता नहीं रह जाती और देहाभिमान जाग्रत होता है, तब केवल अधिकार ही दिखाई देते हैं । इससे यह सिद्ध हुआ कि हममें जो अधिकार की लालसा है, वह अपने को देह मानने पर ही होती है, जो प्रमाद है ।
(15)
सेवा - सूत्र
"
1. जिस प्रकार व्यापारी, व्यापार तथा धन है उसी प्रकार सेवक, सेवा तथा सेव्य है । जिस प्रकार प्रकाश सूर्य का और गन्ध पुष्प का स्वभाव है, उसी प्रकार सेवा सेवक का स्वभाव है | सेवा की नहीं जाती होने लगती है । सेवा उसी में उत्पन्न होती है, जो अपनी प्रसनता के लिए वस्तु, अवस्था एवं परिस्थितियों की खोज नहीं करता । वस्तु, अवस्था आदि की दासता सेवक होने नहीं देती । सेवक के प्रतिरिक्त संसार का प्यार और किसी को नही मिलता । कर्मवादी संसार को प्यार करता है, और सेवक को संसार प्यार करता है । कर्मवादी जिस संसार के प्यार को किसी भी प्रकार नहीं पाता, सेवक उसको बिना ही मूल्य पा लेता है, जिस प्रकार बगीचे के फल खरीदने वाला व्यक्ति छाया तथा वायु को बिना मूल्य ही पा लेता है ।
2. सेवक को संसार की ओर से होने वाले प्यार के लिए लेशमात्र भी प्रयत्न करना नहीं पड़ता । वह स्वतः आता है और आने पर भी बेचारा सेवक को बाँध नहीं पाता, क्योंकि सेवक की वृत्ति बिना ही प्रयत्न निरन्तर सततरूप से जल प्रवाह के समान सेव्य की ओर बहती रहती है।
3. सेवक के स्वभाव में पवित्रता निवास करती है, प्रर्थात् उसमें स्वार्थभाव का नितान्त अन्त हो जाता है ।
4. सेवक के व्यवहार में कार्य कुशलता होती है, क्योंकि उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति समान अर्थ रखती है, अर्थात् उसमें क्रिया भेद होने पर भी प्रीति-भेद नहीं होता और न लक्ष्य भेद होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org