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सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा
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(13) सदाचार-युक्त जीवन की समाज को सदैव आवश्यकता रहती है। यह नियम है कि जिसको जिसकी आवश्यकता होती है, वह उसका मादर भी करता है और उसकी आवश्यकताओं को अपनी आवश्यकता मान लेता है । अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि सदाचार युक्त जीवन होने पर समाज में व्यक्ति को यथेष्ट स्थान मिलता है और उसके बिना ही मांगे उसके अधिकार सुरक्षित रहते हैं। कारण कि अधिकार कर्तव्य का दास है। सदाचारी की पहिचान यही है कि वह उस सुख को स्वीकार नहीं करता, जिसका जन्म किसी के दुःख तथा अहित से हो, अपितु उस दुःख को सहर्ष अपना लेता, है जिसका जन्म दूसरों के हित तथा प्रसन्नता से होता हो । यह प्राकृतिक नियम है कि जिस सुख तथा विकास का जन्म किसी दुःख तथा हास से होता है, वह कालान्तर में घोर दुःख बन जाता है तथा अवनति और ह्रास का कारण हो जाता है । और, जिस दुःख का जन्म दूसरों के हित तथा प्रसन्नता से होता है, वह कालान्तर में चिन्मय आनन्द से अभिन्न कर देता है। इसीलिए सदाचारी उस सुख को नहीं अपनाते, जिससे दूसरों का अहित हो, प्रत्युत उस दुःख को अपना लेते हैं, जिससे दूसरों का हित हो।
(14) आप विचार करके देखें, जो रोगी है वह यह चाहता है कि स्वस्थ व्यक्ति उसकी सेवा करे । बेचारा रोगी क्या सुखी होकर सेवा कराना चाहता है ? कदापि नहीं । सुखी तो सेवा करता है। आपको मानना पड़ेगा कि सेवा करने वाला तो सुखी सिद्ध होता है, और सेवा कराने वाला दुःखी । तो, अधिकार माँगने का अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ है अपने को दुःखी सिद्ध करना और अधिकार देने का अर्थ क्या हुआ ? अपने को सुखी सिद्ध करना । तो आप सोचिए कि क्या हम अपने को दुःखी स्वीकार करें या सुखी सिद्ध करें? आपको कहना पड़ेगा कि अपने को दु:खी स्वीकार करना किसी को भी अभीष्ट नहीं है, अपने को सुखी सिद्ध करना ही सबको अभीष्ट है। यह स्वभाव मानव का स्वभाव है। मानव को तो केवल अपना कर्तव्य दिखाई
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