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सकारात्मक अहिंसा
अभाव की पूर्ति नहीं कर सकता, तो बेचारा व्यक्ति संसार के प्रभाव की पूर्ति कैसे कर सकता है ? सेवा-भाव का अर्थ है, सुख-भोग की आसक्ति का त्याग; प्राप्त योग्यता तथा वस्तुओं आदि का दुःखियों को वितरण कर देना अथवा यों कहो कि संसार से मिली हई वस्तुओं को संसार को वापस कर देना । ऐसा करते ही साधक सभी बन्धनों से मुक्त हो जाता है । और, फिर जो अनन्त सर्वत्र-सर्वदा सभी में विद्यमान है उससे अभिन्न हो जाता है अथवा उसकी प्रीति हो जाती है, जो वास्तव में मुक्ति तथा भक्ति है।
जब हम किसी का बुरा नहीं चाहेंगे, तब हृदय करुणा से द्रवीभूत हो जायेगा, अथवा प्रसन्नता से भर जाएगा।
यह नियम है कि जिस हृदय में करुणा निवास करती है, उस हृदय में सुख-भोग की आसक्ति नहीं रहती, कारण, कि वह अपने से दुःखियों को देखते हुए सुख भोग ही नहीं सकता । और जिस हृदय में प्रसन्नता निवास करती है, वह अपने से सुखी को देखकर न तो ईर्ष्या ही करता है और न उसमें कोई चाह ही उत्पन्न होती है, क्योंकि ईर्ष्या तथा चाह की उत्पत्ति स्थायी प्रसन्नता के अभाव में होती है।
( 12 ) प्राकृतिक नियमानुसार हमें जो कुछ प्राप्त है, वह विश्व की उदारता ही है । जैसे सूर्य की उदारता से ही नेत्र देखता है, आकाश की उदारता से ही श्रवण सुनता है, जल की उदारता से ही रसना को रस मिलता है, वृक्ष और पशुओं की उदारता से ही बहुत-सी जीवन की उपयोगी वस्तुएँ मिलती हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जब हमारा जीवन किसी की उदारता पर निर्भर है, तो हमारे द्वारा भी समाज के प्रति उदारता का ही व्यवहार होना चाहिए । पर, आज यह बात हमारे जीवन से चरितार्थ होती है अथवा नहीं, यह अपने विवेक से देखें । यदि होती है, तो हम में मानवता है और यदि नहीं होती है, तो अमानवता है।
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