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सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा
[ 263 उपाय क्या है ? जैसा कि ऊपर कहा गया है, सभी कामनाओं की उत्पत्ति का कारण अविवेक है । अविवेक को निवृत्ति एक-मात्र विवेक के आदर से हो सकती है, परन्तु विवेक का अादर करने का सामर्थ्य उन्हीं प्राणियों में आता है जो अपना प्राप्त सुख, दुखियों की सेवा में लगा देते हैं और अपने सुख को दुखियों की ही देन मानते हैं; कारण, कि अपने से दुःखी को देखकर सभी को सुख प्रतीत होने लगता है। जिसके दर्शनमात्र से हम अपने को सुखी मानने लगते हैं, क्या उसकी सेवा करना हमारा कर्तव्य नहीं है ? अर्थात् अवश्य है । यह नियम है कि जिनके द्वारा हमें सुख की प्रतीति हुई अथवा जिनको हमने अपना मान लिया है, यदि प्राप्त-सुख के द्वारा उदारता पूर्वक बिना प्रत्युपकार की प्राशा के उनकी सेवा कर दी जाय, तो हम बहुत ही सुगमतापूर्वक सुख की आसक्ति तथा सुख के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं, एवं जिनको अपना मान लिया था उनके बन्धन से भी मुक्त हो जाते हैं।
सुख भोग की लालसा मिटते ही मुक्ति की अभिलाषा पूर्णरूप से स्वतः जागृत हो जाती है। जिस प्रकार सूर्य का उदय और अन्धकार की निवृत्ति युगपद् है, अर्थात् एक साथ हो जाती है, उसी प्रकार मुक्ति की अभिलाषा की पूर्ण जागृति तथा बन्धन की निवृत्ति युगपद् होती है, अर्थात् एक साथ हो जाती है।"
(10) यह सभी को मान्य होगा कि शरीर, इन्द्रिय, मन और बुद्धि आदि का सम्बन्ध समस्त संसार से है; क्योंकि संसार से इनकी जातीय एकता है। जिन वस्तुओं की संसार से जातीय एकता है, यदि उनको उसी की सेवा में समर्पित कर दिया जाय, तो बड़ी ही सुगमतापूर्वक निर्वैरता प्राप्त हो सकती है। कारण कि वैर-भाव तभी उत्पन्न होता है, जब हम संसार को शरीर की सेवा में लगाना चाहते हैं। उसी का दूसरा नाम स्वार्थ-भाव हो जाता है, जो वैर-भाव को पुष्ट करता है। उस स्वार्थ-भाव को मिटाने के लिए ही सेवा-भाव की जागति करना अनिवार्य हो जाता है। सेवा का अर्थ किसी के प्रभाव को पूर्ति करना नहीं है। क्योंकि जब समस्त संसार एक व्यक्ति के
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