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सकारात्मक अहिंसा
वास्तविक सेवा, क्रिया-रूप से भले ही सीमित हो, किन्तु भावरूप से असीम ही होती है, क्योंकि सेवा का जन्म ही होता है स्वार्थ भाव के मिट जाने पर, अर्थात् राग-रहित होने पर । जिन साधनों से क्रियारूप सेवा की जाती है, वे सीमित ही होते हैं। इस कारण सेवक का कर्म सीमित होता है, किन्तु जिस सर्वहितकारी सद्भावना से सेवा की जाती है, वह भाव असोम ही होता है । यह नियम है कि जो कर्म जिस भाव से किया जाता है, अन्त में कर्ता उसी भाव में विलीन हो जाता है। इस दृष्टि से सेवक का सीमित कर्म भी सेवक को असीम प्रेम से अभिन्न कर देता है। जिसका हृदय असीम प्रेम से भरपूर है, वह किसी का अहित नहीं चाहता । अतः किसी के विनाश से किसी के विकास का प्रयत्न सेवा नहीं हो सकता । सेवा चाहे एक व्यक्ति की की जाय अथवा समस्त संसार की, उसके फल में कोई अन्तर नहीं होता; क्योंकि सेवा का फल भोग नहीं है, सेवा का फल है, 'निर्मलता', जो वास्तव में मानवता है ।
निर्मलता पा जाने पर जीवन प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है। प्रेम का प्रादुर्भाव होते ही अहं गल जाता है। अहं के गलते ही जीवन विभु हो जाता है, अथवा यों कहो कि बाह्य भेद प्रतीत होते हुए भी अभेद हो जाता है । फिर किसी प्रकार का संघर्ष शेष नहीं रहता, क्योंकि संघर्ष का जन्म भेद-भाव से होता है और भेद का जन्म अहंभाव से होता है । अहंभाव का पोषण राग-द्वष से होता है, जो वास्तव में मलिनता है।
प्रेम चाहे अपने में हो, किसी प्रतीक विशेष में हो अथवा समस्त विश्व में हो, उससे भेद की उत्पत्ति नहीं होती। भेद की उत्पत्ति तो मोह से होती है, प्रेम से नहीं । मोह एक प्रकार की मलिनता है और प्रेम का प्रादुर्भाव निर्मलता से होता है । अतः यह सिद्ध हो जाता है कि प्रेम मानवता और मोह अमानवता है।
(9) यह सर्ब विदित है कि प्रशांति व अभाव का कारण कामना ही है । अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि कामनाओं की निवृत्ति का
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