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________________ सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा 1 261 आन्तरिक सेवा स्वतः होने लगती है । आन्तरिक सेवा के लिए किसी बाह्य प्रवृत्ति की अपेक्षा नहीं है । उसमें तो सर्व हितकारी भाव विभु होकर सभी को सब कुछ प्रदान करता है, अर्थात् भाव के अनुरूप आवश्यक वस्तु आदि स्वतः प्राप्त होने लगती है । सर्व हितकारी - भाव सर्वात्मभाव प्रदान करता है, अर्थात् सेवक सभी में अपने ही को अनुभव करता है फिर 'सेवक' सेवा' और 'सेव्य' में अभिन्नता हो जाती है । यही सेवा की पराकाष्ठा है । (8) राग-द्वेष का मानव जीवन में कोई स्थान ही नहीं है, क्योंकि राग से पराधीनता और द्वेष से ईर्ष्या आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, और मानव-जीवन मिला है - निर्दोषता के लिए । अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि राग-द्व ेष रहित होने पर ही मानव, वास्तविक मानव हो सकता है । अब यदि कोई कहे कि राग के बिना हम अपने प्रियजनों की सेवा कैसे करेंगे ? तो कहना होगा कि सेवा करने के लिए राग अपेक्षित नहीं है, अपितु उदारता की अपेक्षा है । कारण, कि उदारता आ जाने पर पराया दुःख अपना दुःख बन जाता है और फिर अपना सुख वितरण करने में लेश-मात्र भी संकोच नहीं रहता । इतना ही नहीं, सुख भोग को आसक्ति का अन्त हो जाता है । यही सेवा को वास्तविक सार्थकता है । सेवा का अन्त किसी वस्तु, पद आदि की प्राप्ति नहीं है । सेवा का अन्त तो त्याग में और त्याग का अन्त प्रेम में होता है । यदि हमारी को हुई सेवा हमारे जीवन में पद - लोलुपता तथा जिनकी सेवा की है उनसे किसी प्रकार की प्रशा उत्पन्न कर देता है, तो समझना चाहिए कि हमने सेवा के नाम पर किसी अपने स्वार्थ की हा सिद्धि की है । ऐसा सेवा तो वह बुराई है जो भलाई का रूप धारण करके आतो है । यह नियम है कि जो बुराई, बुराई बन कर आती है वह बड़ी सुगमता से मिट सकती है, किन्तु जो बुराई भलाई का रूप धारण करके प्राती है उसका मिटाना बड़ा ही कठिन हो जाता है, क्योंकि बुराई को बुराई जान लेने पर बुराई स्वतः मिटने लगतो है और बुराई को भलाई मान लेने पर बुराई दृढ़ होती है । I Jain Education International -= For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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