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सकारात्मक अहिंसा
प्राप्त परिस्थिति का सदुपयोग भी नहीं कर सकता। यह नियम है कि प्राप्त परिस्थिति के सदुपयोग के बिना न तो उत्कृष्ट परिस्थिति ही प्राप्त होती है और न परिस्थितियों से अतीत के जीवन में ही प्रवेश होता है । अतः सेवा में मानव-जीवन को सार्थकता निहित है। इस दृष्टि से सेवा साधनयुक्त-जीवन का आवश्यक अङ्ग है।
प्राकृतिक नियमानुसार दूसरों के प्रति जो कुछ किया जाता है वह कई गुना अधिक होकर स्वयं अपने प्रति हो जाता है । इस दृष्टि से दूसरों की सेवा में अपना हित है । सेवा स्वार्थ-भाव को मिटा देती है, जिसके मिटते ही निष्कामता आ जाती है। उसके आते ही देहाभिमान गल जाता है और फिर बड़ी सुगमता पूर्वक अपने ही में अपने वास्तविक जीवन का अनुभव हो जाता है । इतना ही नहीं, सेवा द्वारा भौतिक-विकास भी स्वतः होता है। कारण कि सेवा सेवक को विभु बना देती है, अर्थात् सेवक समाज के हृदय में निवास करता है, क्योंकि सेवक में निर्वैरता स्वभाव से ही आ जाती है। निर्वैरता के आते ही निर्भयता, समता, मुदिता आदि दिव्य गुण स्वतः पाने लगते
अब विचार यह करना है कि सेवा का स्वरूप क्या है ? सेवा दो प्रकार की होती है- एक बाह्य और दूसरी प्रान्तरिक । बाह्य सेवा का अर्थ है प्राप्त वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि के द्वारा, बिना किसी प्रत्युपकार की भावना के, सर्वहितकारी कार्य करना । पर यह तभी सम्भव होगा जब हम प्राप्त वस्तु, योग्यता, सामर्थ्य आदि को अपना न मानें, अपितु उसका माने जिसकी सेवा का सुअवसर मिला है। क्योंकि सृष्टि एक है, उसमें भेद करना प्रमाद है । अब यदि कोई यह कहे कि जब कोई वस्तु अपनी है ही नहीं और उसी की है जिसकी सेवा करते हैं, तब उसके नाम पर सेवा कैसे हो सकती है ? तो कहना होगा कि बाह्य सेवा जिन साधनों से की जा रही है, यद्यपि वे साधन एक ही सृष्टि के हैं और जिनकी सेवा की जा रही है वे भी सष्टि के ही अन्तर्गत हैं, तो भी जिस प्रकार शरीर के अवयव परस्पर एक दूसरे की सेवा करते हैं, उसी प्रकार सष्टि से प्राप्त साधनों के द्वारा ही सृष्टि की सेवा की जा सकती है। हाँ, यह अवश्य है कि जब सेवा द्वारा भेद गल जाता है तब करना स्वतः होने में बदल जाता है और
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