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सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा
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दुःख को अपनायें, जिसमें दूसरों का हित निहित है, तो कहना होगा कि वह सामर्थ्य उन्हीं साधकों में प्राती है, जिनकी प्रत्येक चेष्टा ज्ञानपूर्वक होती है । ज्ञानपूर्वक की हुई प्रवृत्ति हित से हित की ओर हो जाती है । यदि हम प्राकृतिक रचना का यथेष्ट अध्ययन करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्मेन्द्रियों का उचित कार्य ज्ञानेन्द्रियों के प्रकाश में ही होता है । ज्ञानेन्द्रियाँ संकल्प के अनुरूप ही कार्य करती हैं । संकल्प में शुद्धता विवेकवती बुद्धि द्वारा प्राती है और बुद्धि का ज्ञान उस अनन्त नित्य ज्ञान से ही प्रकाशित होता है । अतः हमारा प्रत्येक कर्म ज्ञान के प्रकाश में ही होना चाहिए ।
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'सेवा' भाव है, कर्म नहीं । इस कारण प्रत्येक परिस्थिति में योग्यता, रुचि तथा सामर्थ्य के अनुसार सेवा हो सकती है | सच्चे सेवक की दृष्टि में कोई 'और' नहीं है तथा कोई 'गैर' नहीं है । इसलिये सेवक का हृदय स्वभाव से ही दुःखियों को देखकर करुणित तथा सुखियों को देखकर प्रसन्न हो जाता है । 'करुणा' सुखभोग की रुचि को और 'प्रसन्नता' खिन्नता को खा लेती है । सुख भोग की रुचि का अन्त होते ही प्राप्त सुख -सामग्री दुःखियों के लिये स्वतः समर्पित होने लगती है और खिन्नता का अन्त होते ही कामनाओं का नाश अपने आप हो जाता है ।
यह नियम है कि कामनाओं की निवृत्ति में ही जिज्ञासा की पूर्ति तथा प्रेम की प्राप्ति निहित है । शरीर और विश्व में, व्यक्ति और समाज में तथा प्रेमी और प्रेमास्पद में सेवा ही एकता तथा अभिन्नता प्रदान करती है । सेवक अपना सुख देकर दूसरे के दुःख को अपनाता है | यह नियम है कि जो दुःख, सुख देकर अपनाया जाता है वह अपने आप आनन्द से भिन्न हो जाता है । इस दृष्टि से 'सेवक' 'सेवा' होकर साध्य से अभिन्न हो जाता है ।
सेवा वही कर सकता है, जो कुछ भी अपना न माने । जो कुछ भी अपना मानेगा वह सेवा नहीं कर सकता । जो सेवा नहीं कर सकता वह प्यार भी नहीं कर सकता । जो सेवा नहीं कर सकता वह
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