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सकारात्मक अहिंसा
प्रभाव में ही निहित है।
(दुःख का प्रभाव 103-105) क्या हम हृदयहीन हुए बिना विषय-सुख का भोग कर सकते हैं ? कदापि नहीं । सुख-भोग में प्रवृत्ति तभी होती है, जब हम दुखियों की ओर से विमुख हो जाते हैं । दुःखियों को बिना अपनाये क्या हृदय में करुणा उदय हो सकती है ? करुणा के बिना क्या प्रासक्ति मिट सकती है ? अनासक्ति के बिना क्या कोई उदार हो सकता है ? उदारता के बिना क्या कोई महान् हो सकता है ? महानता के बिना क्या कोई अमरत्व प्राप्त कर सकता है ? कदापि नहीं । अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई हृदयशील प्राणी सुख नहीं भोग सकता। हाँ, यह अवश्य है कि सुख का सदुपयोग कर सकता है ।
सुख का सदुपयोग सेवा है, क्योंकि सेवा के बिना सुख-भोग की प्रासक्ति मिट नहीं सकती। पर, सेवा वही कर सकता है, जिसका हृदय पराये दुःख से भरा रहे । सेवा का अर्थ किसी का दुःख मिटाना नहीं है, अपितु अपना सुख बाँटना है । सुख के व्यय होने पर राग निवृत्त हो जाता है और हृदय त्याग तथा प्रेम से भर जाता है । त्याग से चिर शांति और प्रेम से अगाध-अनन्त रस स्वतः प्राप्त होता है, जो मानव की माँग है । अतः यह स्पष्ट हो जाता है, कि सुख भोगने से तो अनेक दोष उत्पन्न होते हैं और सेवा द्वारा सुख का सदुपयोग करने से प्राणी का कल्याण तथा सुन्दर समाज का निर्माण होता है, जो वास्तव में मानव-जीवन है।
सुख का सदुपयोग करने में वे ही समर्थ हो सकते हैं, जो उस दुःख को अपना लेते हैं, जिसमें दूसरों का हित तथा प्रसन्नता निहित है और उस सुख का त्याग कर देते हैं, जिसका जन्म किसी के अहित में हो । अतः हमें सावधानीपूर्वक उस सुख का त्याग करने के लिए सर्वदा प्रस्तुत रहना चाहिए, जिससे दूसरों का ह्रास हो और उस दुःख को सहर्ष अपना लेना चाहिये, जिसमें दूसरों का विकास हो।
अब विचार यह करना है कि यह सामर्थ्य कब आयेगो, जिससे हम उस सुख को न अपनायें, जिसमें दूसरों का अहित है, अपितु उस
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