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________________ सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा [ 257 जिस प्रकार प्रत्येक प्राणी को अपने शरीर की रक्षा अभीष्ट है, उसकी क्षति प्रिय नहीं है, उसी प्रकार सभी की रक्षा अभीष्ट हो और किसी की क्षति अपने को सहन न हो, तभी वास्तविक भौतिकवाद सिद्ध हो सकता है । ममता और कामना को जीवित रखना और अपने-अपने सुख सुरक्षित रखने में लगे रहना भौतिकवाद नहीं है, अपितु वह संघर्षवाद, विनाशवाद और भोगवाद है, जो सर्वदा, सभी के लिए अहितकर है। "शरीर विश्व के काम आ जाये", इसके अतिरिक्त अपना और कोई उद्देश्य न रहे, तभी भौतिकवाद की दृष्टि से प्रेम के साम्राज्य की स्थापना हो सकती है । अध्यात्मवाद ने मानव-समाज को सर्वात्मभाव का पाठ पढ़ाया है अर्थात् निज-स्वरूप से भिन्न कुछ है ही नहीं, समस्त विश्व अपनी ही एक अवस्था मात्र है और कुछ नहीं है । इस दृष्टि से अध्यात्मवाद के द्वारा भी प्रेम के साम्राज्य की स्थापना हो सकती है, कारण कि अपने में अपनी प्रियता स्वाभाविक है । प्रियता की जागृति परस्पर भेद, भिन्नता, संघर्ष आदि के नाश में हेतु है। जगत् और उसका प्रकाशक अपना ही निज स्वरूप है; अपने से भिन्न की सत्ता हो नहीं है, यही अध्यात्मवाद की एकता है । जगत् को मिथ्या कहना मात्र ही अध्यात्मवाद नहीं है, प्रत्युत भेद और भिन्नता का अत्यन्त प्रभाव ही अध्यात्मवाद है। आस्तिकवाद ने प्रेमास्पद से भिन्न में आस्था, श्रद्धा तथा विश्वास ही नहीं किया और प्रेमास्पद की आत्मीयता को ही अपना सर्वस्व माना और उन्हीं के नाते निष्काम भाव से विश्व की सेवा की । इतना ही नहीं, उसने समस्त विश्व में प्रेमास्पद की अनुपम लीला का ही दर्शन किया। प्रास्तिकवाद प्रीति और प्रियतम से भिन्न को जानता ही नहीं, प्रत्युत प्रीति से अभिन्न होकर अनेक रूपों में प्रीतम को लाड़ लड़ाने का पाठ आस्तिकवाद ने पढ़ाया है। इस कारण आस्तिकवाद ने भी प्रेम के साम्राज्य की ही स्थापना की है । भय-रहित शांति की अभिव्यक्ति सेवा, त्याग तथा प्रेम में ही निहित है । परन्तु जब तक साधक दुःख के प्रभाव से प्रभावित नहीं होता अर्थात सुख-भोग रूप स्वार्थ का त्याग कर सेवा भाव अपनाने में समर्थ नहीं होता, तब तक जीवन में सेवा, त्याग तथा प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं होती। इस दृष्टि से सर्वतोमुखी विकास दुःख के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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