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________________ 256 ] सकारात्मक अहिंसा लेने पर अन्तर्द्वन्द्व अपने आप मिट जाता है। अन्तर्द्वन्द्व मिटते ही अनावश्यक तथा अशुद्ध संकल्प नष्ट हो जाते हैं और आवश्यक तथा शुद्ध संकल्प स्वतः पूरे हो जाते हैं । संकल्प पूर्ति के सुख का भोग न करने पर अपने आप निर्विकल्पता की अभिव्यक्ति होती है । निर्विकल्पता में ही शान्ति तथा सामर्थ्य निहित है। निर्विकल्पता मानव मात्र को प्राप्त हो सकती है। अतः सामर्थ्य के सम्पादन में मानव स्वाधीन है। (दर्शन और नीति, पृ. 87-88) ( 5 ) यह सभी को विदित है कि सर्वांश में कोई भी देश, वर्ग, समाज एवं व्यक्ति सबल तथा निर्बल नहीं है । अांशिक बल तथा निर्बलता सभी में हैं। व्यक्ति जिस अंश में सबल है, उस अंश में किसी निर्बल को देख करुणित हो और जिस अंश में निर्बल है, उस अंश में किसी सबल को देख प्रसन्न हो तो परस्पर की भिन्नता एकता में परिवर्तित हो जाती है, जिसके होते ही भयरहित शान्ति का प्रादुर्भाव होता है । इस दृष्टि से दुःखियों को देख करुणित और सुखियों को देख प्रसन्न होना प्रत्येक देश, वर्ग, समाज एवं व्यक्ति के लिए अनिवार्य है और यही सर्वोत्कृष्ट सेवा है । सेवा की सजीवता तथा पूर्णता त्याग में निहित है, अर्थात जब तक प्रत्येक भाई-बहिन मिली हुई वस्तुओं को ममता का अन्त नहीं करेंगे और प्राप्त वस्तुओं की कामना से रहित नहीं होंगे, तब तक प्राप्त वस्तु, सामर्थ्य, योग्यता, आदि का सद्व्यय सम्भव नहीं है । कारण कि ममता एवं कामना ने ही दो व्यक्तियों, वर्गों, देशों आदि में भेद उत्पन्न कर संघर्ष का पोषण किया है । भेद के रहते हुए केवल बाह्य सामग्री के सम्पादन मात्र से कोई भी भयरहित शान्ति प्राप्त नहीं कर सकता, अपितु सेवा और त्याग के बिना वह स्वयं सबल से भयभीत होगा और निर्बलों को भयभीत करता रहेगा जो अशान्ति का मूल है। सेवा और त्याग को सजीव बनाने में एकमात्र प्रेम ही मूल तत्व है। इस कारण प्रेम के साम्राज्य की स्थापना सभी के लिए अत्यन्त आवश्यक है। उसके लिए प्रत्येक भाई-बहिन को भौतिकवाद की दृष्टि से शरीर और विश्व की एकता स्वीकार करना अनिवार्य है, कारण कि किसी भी प्रकार शरीर और विश्व का विभाजन सम्भव नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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