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सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा
[ 255 परिस्थितियों से अतीत जीवन पर विश्वास हो और विवेक-पूर्वक अचाह-पद प्राप्त कर लिया हो । जो चाह-रहित जीवन पर विश्वास नहीं करते, वे निवृत्ति के द्वारा लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते । हाँ, एक बात अवश्य है कि सर्वहितकारी प्रवृत्ति से वास्तविक निवत्ति की योग्यता आ जाती है और वास्तविक निवृत्ति से जीवन सर्वहितकारी प्रवृत्ति के योग्य बन जाता है। अतः हम जिस अंश में सुखी हों, उस अंश में सर्वहितकारी प्रवृत्ति द्वारा सुखासक्ति से मुक्त होने का प्रयत्न करें और जिस अंश में दुःखी हों, उस अंश में अचाह होकर वास्तविक निवृत्ति द्वारा दुःख के भय से मुक्त होकर अचाह-पद प्राप्त करें।
( 4 ) अन्तर्द्वन्द्व मिटाने के लिए यह अनिवार्य है कि अपने दुःख का कारण किसी और को मत समझो और किसी से सुख की प्राशा मत करो। ऐसा करने से अन्तर्द्वन्द्व अपने आप मिट जाता है । सुख की प्राशा से हो समस्त दुःख उत्पन्न होते हैं । पराये दुःख से दु:खी होने पर ही सुख की पाशा गलती है। प्राकृतिक नियम के अनुसार अपने दुःख से दुःखी उन्हीं को होना पड़ता है, जो पराये दुःख से दुःखी नहीं होते। दूसरों के दुःख से दुःखी हुए बिना किसी का भी दुःख नहीं मिट सकता, यह प्राकृतिक विधान है। - अब यदि कोई यह कहे कि पराये दुःख से दुःखी होना अनिवार्य क्यों है ? तो यह कहना होगा कि प्राकृतिक नियम के अनुसार शरीर विश्व से और व्यक्ति समाज से अभिन्न है । जो व्यक्ति समाज के दुःख से दु:खी नहीं होता उसकी समाज से अभिन्नता नहीं होती, जिसके न होने से व्यक्तित्व का मोह दृढ़ हो जाता है । व्यक्तित्व का मोह व्यक्ति को निरन्तर दीनता तथा अभिमान की अग्नि में जलाता है । इस कारण पराये दुःख से दुःखी होने पर ही व्यक्तित्व का मोह गल सकता है, जिसके गलने पर ही दुःख का अन्त हो सकता है । पराए दुःख का अर्थ क्या है ? अपने से अधिक दुःखियों को देख कर सुख भोगने में जो असमर्थ है तथा जिसे दूसरों का सुख प्रसन्नतापूर्वक सहन होता है, वही पराए दुःख से दुःखी होता है। पर पीड़ा से पीड़ित प्राणो निज-पीड़ा से सर्वदा मुक्त है । इस रहस्य को भली-भाँति जान
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