________________
252 ]
सकारात्मक अहिंसा कामना से प्रेरित सर्वहितकारी प्रवृत्ति वास्तव में सर्वहितकारी नहीं है, अपितु मान तथा भोग की जननी है, जिसका साधक के जीवन में कोई स्थान ही नहीं है, कारण कि मान तथा भोग में प्राबद्ध प्राणी देहाभिमान से रहित नहीं हो पाता, जिसके बिना हए किसी के भी मौलिक प्रश्न हल नहीं हो सकते । इस दृष्टि से मान तथा भोग की रुचि का अन्त करना अनिवार्य है, जिसके होते ही प्रत्येक परिस्थिति में सर्वहितकारी प्रवृत्ति द्वारा प्राप्त सामर्थ्य का सद्व्यय होने लगता है जो विकास का मूल है।
सर्व हितकारी प्रवृत्ति के अन्त में अथवा कामरहित होने पर मंगलमय विधान से जो निवृत्ति स्वतः आती है, वही वास्तविक निवृत्ति है। संकल्पपूर्वक जिस निवृत्ति का सम्पादन किया जाता है, वह निवृत्ति होने पर भी घोर प्रवृत्ति ही है । कामरहित हुए बिना बलपूर्वक जो निवृत्ति प्राप्त की जाती है, वह साधक को अभिमानशून्य नहीं होने देतो, जिसके बिना हुए साधन-रूप निवृत्ति की अभिव्यक्ति नहीं होती, अपितु अभिमानयुक्त निवृत्ति व्यक्तित्व के मोह का ही पोषण करतो है और परस्पर भेद उत्पन्न कर देती है, जो विनाश का मूल है । अभिमान-शून्य निवृत्ति शान्ति, सामर्थ्य तथा स्वाधीनता की जननी है और अभिमानयुक्त निवृत्ति प्रांशिक शक्ति भले ही प्रदान करे, पर शान्ति तथा स्वाधीनता का तो विनाश हो करती है । इस कारण अभिमान रहित निवृत्ति ही वास्तविक निवृत्ति है। उसी की अभिव्यक्ति साधक के मौलिक प्रश्नों के हल करने में हेतु है। प्रवृत्ति और निवृत्ति दायें-बायें पैर के समान हैं। इन दोनों से ही साधक सत्पथ पर आरूढ़ होता है, परन्तु स्वार्थभाव से उत्पन्न प्रवृत्ति और अभिमानयुक्त निवृत्ति तो प्राणियों को सत्पथ से विमुख ही करती है। प्राकृतिक नियमानुसार प्रत्येक प्रवृत्ति के आदि और अन्त में निवृत्ति स्वतः सिद्ध है। जो तथ्य स्वतः सिद्ध है, उसकी खोज की जाती है, उसको उत्पादित नहीं किया जाता। अत: साधन-रूप निवृत्ति की खोज करना है तथा उससे अभिन्न होना है, उसको उत्पन्न नहीं करना है। उत्पत्ति-विनाश तो एक ही सिक्के के दो पहल हैं। प्रत्येक उत्पत्ति विनाश में और विनाश उत्पत्ति में विलीन होता रहता है । सहज निवृत्ति स्वतः प्राप्त होती है, परन्तु उसके लिए प्रत्येक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org