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सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा
। 253 साधक को कामरहित (सुख भोगरहित) होना अनिवार्य है।"
(दुःख का प्रभाव, पृ 98-100)
( 3 ) कुछ काल निवृत्ति रहने से सर्वहितकारी प्रवृत्ति की शक्ति स्वतः आ जाती है, यह प्राकृतिक नियम है। अतः जब मैं संसार से विमुख होकर शांत रहने लगा, तब संसार को स्वतः आवश्यकता होने लगी। किन्तु, जब-जब सम्मान के रस में आबद्ध हुआ, तब-तब संसार मुझसे विमुख होने लगा। मेरा यह अनुभव है कि संसार से सुख लेने की आशा ने ही सदैव दुःख दिया है और बेचारे दुःख ने सदैव संसार से निराश होने का पाठ पढ़ाया है, जिससे दुःखी से दुःखी को भी नित्य चिन्मय आनन्द मिला है। इससे यह सिद्ध हो जाता है कि साधक भयङ्कर से भयङ्कर परिस्थिति में भी साधन का निर्माण कर सकता है और साध्य से भिन्न हो सकता है। उपयूक्त पाठ के बोलने का सामर्थ्य होते हुए भी वाणी को मौन कर दिया, गति रुकने लगी, चंचलता स्थिरता में बदलने लगी और जैसे-जैसे चंचलता स्थिरता में बदलने लगी, वैसे-वैसे छिपे हुए राग की पूर्ति भी होने लगी; अर्थात् जिस दुःख से दुःखी होकर मन संसार से निराश हुआ था, वह दुःख सुख में बदलने लगा। यह मेरा ही अनुभव नहीं है, बहुत से साधकों का अनुभव है। कारण, कि यह नियम है कि जिस कठिनाई को शांतिपूर्वक सहन कर लिया जाता है, वह कठिनाई स्वयं हल हो जाती है। शांतिपूर्वक सहन करने का अर्थ है, अपने दुःख का कारण किसी और को न मानकर दुःख को सहन कर लेना। सुख पाने पर अपने से दुःखियों को बिना किसी अभिमान के वितरण कर देना चाहिये, चूंकि सुख वास्तव में दुःखियों की ही धरोहर है, उसे अपना नहीं मानना चाहिये । अन्तर केवल यह है कि आस्तिक उस सुख को प्रभु के नाते दुःखियों को भेंट करता है, तत्त्वज्ञ सर्वात्मभाव से और सेवक विश्व के नाते । यह नियम है कि जिसके नाते जो कार्य किया जाता है, कर्ता प्रवृत्ति के अन्त में उसो में विलीन हो जाता है, अर्थात् अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । तो यदि हम किसी की चाह पूरी कर सकते हैं, तो पूरी करें; किन्तु यह अवश्य देख लें कि जिसकी चाह
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