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________________ सर्वहितकारी प्रवृत्ति और सेवा [ 251 प्रारम्भ होती है, उसका परिणाम निवृत्ति नहीं होता, प्रत्युत प्रवृत्ति के अन्त में भी प्रवृत्ति की ही रुचि शेष रहती है। यद्यपि प्रत्येक प्रवृत्ति से प्राप्त सामर्थ्य का व्यय ही होता है, तथापि दूषित प्रवृत्तियों की रुचि असमर्थता में भी बनी रहती है। उस दशा में प्राणी जो नहीं कर सकता है तथा जो नहीं करना चाहिये, उसी के चितन में प्राबद्ध हो जाता है। उसका बड़ा ही भयंकर परिणाम यह होता है कि प्राणी उत्तरोत्तर चेतना से विमुख हो जड़ता में ही आबद्ध होता जाता है, जो विनाश का मूल है । असमर्थता-काल में प्रवत्ति की रुचि प्राणी को पराधीनता-जनित पीड़ा में आबद्ध करती है, जो किसी को भी स्वभाव से प्रिय नहीं है । यदि पराधीनता-जनित वेदना से पीड़ित प्राणी भोगरूप दूषित प्रवृत्ति की रुचि का नाश कर दे तो अत्यन्त सुगमतापूर्वक सहज निवृत्ति को अपनाकर असमर्थता का अन्त कर सकता है । फिर अपने आप सर्वहितकारी प्रवृत्ति प्रारम्भ होती है, जो कर्ता को करने के राग से रहित करने में हेतु है । इस कारण प्रवृत्ति वही सार्थक है, जो किसी के लिये अहितकर न हो, अपितु सर्वहितकारी हो । सर्वहितकारी प्रवृत्ति सीमित होने पर भी असीम है, कारण कि उसका अन्त सर्वहितकारी भावना में ही होता है। प्राकृतिक नियमानुसार कर्म सीमित और भाव असीम होता है । सर्वहितकारी प्रवृत्ति असीम सद्भावनामों में सजीवता लाती है और सद्भावनाएँ सर्वहितकारी प्रवृत्ति को पुष्ट बनाती हैं । सर्वहितकारी प्रवृत्ति कितनी ही अल्प क्यों न हो, कर्ता को विभुता से अभिन्न करती है, अर्थात् सर्वहितकारी प्रवृत्ति के अन्त में कर्ता करने के राग से रहित हो असीम जीवन से अभिन्न हो जाता है। इस दृष्टि से सर्वहितकारी प्रवृत्ति बड़े ही महत्त्व की वस्तु है । सर्वहितकारी प्रवृत्ति के अन्त में अपने आप आने वाली सहज निवृत्ति आवश्यक सामर्थ्य प्रदान करती है। ज्यों-ज्यों प्राप्त सामर्थ्य का सद्व्यय होता जाता है, त्यों-त्यों आवश्यक सामर्थ्य की अभिव्यक्ति स्वतः होती रहती है, अर्थात् सर्वहितकारी कार्य के लिये सामर्थ्य विधान से बिना ही मांगे मिलती है । सुख-भोग की रुचि का सर्वांश में नाश हुए बिना सर्वहितकारी प्रवृत्ति स्वभावतः नहीं होती। पर जब साधक सुख-भोग की रुचि का नाश कर देता है, तब सर्वहितकारी प्रवृत्ति स्वतः होने लगती है । आत्मख्याति तथा लोकरंजन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002119
Book TitleSakaratmak Ahimsa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1996
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size17 MB
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